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उसे यथा-स्थिति रूप में स्वीकार कर, उससे अनुभावित और सम्प्रेषित नहीं .. हो सकता। उससे उसका कोई सहज मानसिक जुड़ाव नहीं हो पाता ।।
तब ज़रूरी हुआ कि कैवल्य-पुरुष भगवान् स्वयम् अपनी उस मनातीत ज्ञान-चेतना को अत्यन्त मनोगम्य भाषा में व्यक्त करें। ताकि आधुनिक मानसिकता के मर्म में केवलज्ञान का कोई अचूक संघात सम्भव हो सके। आधुनिक मनुष्य उसे ग्रहण करने को उद्यत हो सके, उसे प्राप्त करने की अभीप्सा से प्रज्ज्वलित हो सके। अन्ततः हर आत्मा उसे अपनी अनिवार्य ज़रूरत के रूप में महसूस कर सके, और अपनी अन्तिम नियति के रूप में उसका साक्षात्कार कर सके । इसी कारण अन्तिम अध्याय 'कैवल्य के प्रभा-मण्डल में' द्वारा मैंने भगवान के श्रीमुख से ही केवलज्ञान की अनुभूति का समग्रात्मक कथन करवा दिया है। इसमें कला-शिल्प की दृष्टि से मैंने खतरा उठाया है। कितना उसमें सफल हो सका हूँ, इसका निर्णय पाठक के हाथों है।
आधुनिक विश्व-साहित्य में कहीं भी सर्वज्ञता या पूर्ण ज्ञानस्थिति का रचनात्मक निरूपण देखने में नहीं आया। मेरे सामने एक सर्वथा नयी और अप्रयुक्त भूमिका थी। और चुनौती थी कि कैसे इस अपूर्व चेतना-स्थिति को रचनास्तर पर आकलित करके इसे अधिकतम सम्प्रेषणीय बना सकता हूँ। इसके लिये एक नितान्त नयी और कुंवारी भाषा पाने के लिये मैं कई रातों बेचैन रहा। आखिर स्वयम् श्री भगवान ने अनुगृह किया, और कैवल्यानुभूति की अभिव्यक्ति के उपयुक्त एक प्रांजल भाषा सहज मेरी क़लम पर उमड़ती चली आई। “सृजन का वह मुहूर्त कितना सुखद और मुक्तिदायक था, कसे कहा जाये ? ___ इस भाषा-आविष्कार के दौरान कई नये शब्दों का निर्माण, तथा प्रचलित शब्दों का नवीन व्यापक आशयगत नियोजन भी हुआ है। इसी अन्तःस्फूर्ति में से मैंने 'सम्भोग' शब्द को महज नर-नारी मैथुन के दायरे में से मुक्त कर अंग्रेजी शब्द 'इन्टरकोर्स' के व्यापक भावार्थ में प्रयुक्त किया है।
यहां यह स्वीकार करना उचित है, कि इस उपन्यास में आरम्भ से ही जो विजन और फन्तासी की राह मैंने महावीर और अन्य पात्रों की अन्तश्चेतना को खोला है, उसमें 'शक्तिपात' से प्राप्त मेरी भीतरी योगानुभूतियों ने गहरा योगदान किया है। ध्यान में अनेक बार देखे गये अन्तर-जगत, सूक्ष्म-जगत और स्वप्न-जगत के दृश्यों की जो गहरी स्मृतियां मेरी सम्वेदना में सुरक्षित थीं, उनके दिव्य सौन्दर्य वैभव को अनजाने ही इस रचना में यथास्थान सांगोपांग अभिव्यक्ति प्राप्त हो गई है। उपन्यास के सभी उन्नत पात्रों के आत्म-दर्शन के क्षणों का चित्रण मेरी उन्हीं अनुभूतियों द्वारा हुआ है।
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