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पदार्थों से प्रतिध्वनित होनेवाले उत्तर, और आत्म-सम्बोधन तथा अन्य-सम्बोधन के रूप में फूटनेवाली भाव-वाणी, दोनों ही महावीर की आत्म-साक्षात्कार की प्रक्रिया में योगदान करते हैं। यानी इन उत्तरों से वे स्वयम् भी अधिक प्रबुद्ध, अधिक आत्मोन्नत होते हैं।
दो खण्ड समाप्त कर लेने पर अब समझ में आता है, कि इस उपन्यास में आत्म-कथा शैली अपना कर, क्या विशिष्ट उपलब्ध हो सका है। महावीर मूलतः एक आत्म-पुरुष हैं । और यह आत्म-पुरुष ही अपने विस्तार में विश्व-पुरुष हो जाता है। आत्म-पुरुष का अन्तर्लोक आत्म-कथा के माध्यम से ही समीचीन और समग्र अभिव्यक्ति पा सकता है। पौराणिक कथा के पुनर्सर्जन में मेरा लक्ष्य पुराकथा को केवल आधुनिक परिधान देना या नवकला-देह प्रदान करना नहीं है, उसमें मेरा साध्य आत्म-पुरुष की मनोवैज्ञानिक तलाश है। इसकी खातिर उसकी अतल-वितल अवचेतनिक गहराइयों में डूबना अनिवार्य है। यानी अंग्रेजी में जिसे 'इनर प्रोब एण्ड एक्स्प्लोरेशन' कहा जाता है, वही मेरे सृजन की खास फ़ितरत है। इस माने में भारत की विभिन्न भाषाओं में वर्तमान में लिखे गये पौराणिक उपन्यासों से मेरा पौराणिक उपन्यास सर्वथा अलग पड़ जाता है। मुन्शी के लोकप्रिय पौराणिकों से मैं इसी अर्थ में सर्वथा भिन्न और दूसरे छोर पर हूँ। यानी मेरी कथा सतह गत घटनाओं पर समाप्त नहीं, उसकी व्याप्ति कॉस्मिक है, और वह गहराइयों में उतर कर ही, अपनी अभीष्ट तृप्ति पा सकती है।
किसी पूर्व विचारित योजना या इरादे से मैंने आत्म-कथा शैली को नहीं अपनाया। वह मानो स्वयम् महावीर ने ही मुझे दी है, कि 'मैं इसी राह कला में समीचीन रूप से उतर सकूँगा।' चूंकि महावीर आत्मकथा की राह व्यक्त होते हैं, इसी से उनसे सम्बद्ध अन्य पात्र भी अनायास आत्म-कथन द्वारा अपने को. व्यक्त करते दिखाई पड़ जाते हैं। क्योंकि महावीर और उनके बीच, कथा की समग्रता में एक अंगागी सम्बन्ध है।
लेकिन महावीर चूंकि स्वभाव से ही जन्मजात द्रष्टा और योगी हैं, इस कारण वे केवल उत्तम पुरुष होकर नहीं रह सकते, समानान्तर रूप से वे अपनी ही निगाह में एक अन्य पुरुष के रूप में भी घटित होते हैं। यानी वे 'मैं' और 'वह' के रूप में संयुक्त भाव से घटित होते हैं। एक ही क्षण में 'मैं' अचानक 'वह' बनकर उनके सामने आ जाता है। अर्थात् उस महायोगी में ऐसी चेतना सक्रिय है, कि वह आवश्यकतानुसार, प्रसंगतः अपने को अपने से अलग करके सामने खड़ा भी देख सकता है। मसलन एक स्थल पर महावीर कायोत्सर्ग में अविचल खड़े हैं, और वे स्वयम महावीर की मूर्ति या व्यक्तित्व को सामने से गुजरता देखते हैं। और स्वयम् ही उसकी भव्य व्यक्तिमत्ता का लाक्षणिक साक्षात्कार करते हैं। और तब स्वयम् उत्तम पुरुष द्रष्टा मात्र रह कर, अपने ही व्यक्तित्व को दृश्य और ज्ञेय बनाकर, देखते-जानते हैं । उसे अपने ज्ञान-दर्शन
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