Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 382
________________ इन पूर्व भवान्तर-कथाओं को उलटते-पलटते वक्त, मुझे बारबार यह सचोट सूझा कि मनोवैज्ञानिक खोज की भारी सम्पदा और सम्भावना इनमें निहित है। जैन पुराण भवान्तर-कथाओं से भरे पड़े हैं। वे कई बार बड़ी ऊब भी पैदा करती हैं। लेकिन जब उनके प्रयोजन को समझने के ख्याल से मैंने उनमें गोता लगाया, तो मुझे स्पष्ट प्रतीति हुई कि आत्मोत्थान की जन्मान्तर-गामी यात्रा में ये भव-कथाएँ बड़ी मार्मिक और सार्थक कड़ियों के रूप में हाथ आती हैं। मेरे विचार से जैन कथा-साहित्य का यह पक्ष, मनोविज्ञान के खोजियों के लिये एक अमूल्य खजाना सिद्ध हो सकता है । साढ़े बारह वर्ष के इस दीर्घ तपस्या काल में महावीर अखण्ड मौन धारण किये रहते हैं। प्रयोजन यह है, कि अब वे पूर्णज्ञान की खोज में हैं, और अज्ञान या अधूरे ज्ञान से नि:सृत वैकल्पिक वाणी बोलने में अब उनकी रुचि नहीं है । लेकिन इस अक्षुण्ण मौन में विचरते हुए भी वे जीवन-जगत से असम्पृक्त और विमुख नहीं हैं, पलायित नहीं हैं । वे निष्क्रिय नहीं हैं। परिवेश में होने वाले सारे मुकाबिलों और घटनाओं का वे पूर्ण संचेता से सामना करते हैं। अपनी आत्मिक क्रिया द्वारा वे उनका सचोट उत्तर देते हैं। रचना में प्रश्न प्रस्तुत था, कि अखण्ड मौन महावीर की उन आत्मिक और भाविक प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति कैसे दी जाये। इसके लिये मैंने दो युक्तियों का आविष्कार किया। एक तो यह कि वे दृष्टि, इंगित, स्पर्श या मुस्कान मात्र से बहुत कुछ कह देते हैं। दूसरे उनकी भीतरी आवाज से आने वाला वह उत्तर, कभी पास के झाड़ से, कभी अलक्ष्य अन्तरिक्ष से, कभी किसी सम्मुख मूर्ति या गुम्बद् में से सुनाई पड़ जाता है। यानी यह कि महावीर की आत्मिक ऊर्जा में से वह उत्तर इतना एकाग्र और अविकल्प होकर फूटता है, कि वह परिवेश की किसी भी वस्तु से टकराकर, उसके माध्यम से प्रतिध्वनित हो उठता है। मैंने महसूस किया कि इस शिल्पगत उपाय-आविष्कार से एक विलक्षण कला-सौन्दर्य प्रकट हुआ है, एक अनोखा कला-विलास सम्भव हुआ है। रचना में एक और नया प्रयोग करने का मौका मिला । महावीर के उत्तर को अभिव्यक्ति देने के लिये एक और भी उपाय-योजना मैंने की है। परिवेशगत घटना या व्यक्ति से मुकाबिले के क्षण में, उनके भीतर एक एकालाप (मोनोलॉग) सा चल पड़ता है। जिसमें सन्दर्भगत कथा-सूत्र भी उभरते हैं, और अनेक पूर्वापर परिप्रेक्ष्यों में, वे प्रस्तुत स्थिति पर बहुत ही मौलिक रोशनी डालते हैं, जो उनके क्षण-क्षण में घटित हो रहे आत्म-विकास को व्यक्त करती है। इन एकालापों में वे कभी-कभी प्रस्तुत घटना या व्यक्ति को सम्बोधन करके मी, बहुत कुछ उद्घाटित करते हैं, अनावरित करते हैं। बाह्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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