Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 380
________________ अवरोधों से टकराता है, जिनसे गुज़र कर, जूझ कर और जिन्हें जय करके ही सम्पूर्ण जीवन्मुक्ति सम्भव हो सकती है। ___ यह एक तरह से मोहमयी प्रकृति की आबद्धकारिणी शक्तियों के साथ, मोक्षार्थी पुरुष के चरम युद्ध की भूमिका है। इस युद्ध के दौरान श्रमण प्रकृति, पशु-जगत, मनुज, दनुज और देव-जगतियों की सारी बन्धक और बाधक शक्तियों से सीधा टकराता है। सत्ता, अस्तित्व और जगत-जीवन के सारे सम्भवित दबावों और तनावों को तात्विक स्तर पर एकाग्र और पुंजीभूत रूप से झेलता है। जड़ अन्धकार की इन आत्मघाती शक्तियों का वह प्रतिरोधी प्रतिकार नहीं करता। इन्हें अकम्प भाव से सम्पूर्ण सहकर, झेलकर, अपनी आत्मा के स्वभावगत असीम अवकाश में इन्हें मुक्त भाव से प्रविष्ट होने देकर, उन्हें चुका देता है, व्यर्थ कर देता है। और इस तरह सान्त को चुका कर, वह अनन्त शाश्वत पुरुष हो जाता है। क्षय, रोग, जरा और मृत्यु को जीतकर मृत्युजयी हो जाता है, जो कि वस्तुतः उसकी आत्मिक विरासत है। ___ इस युद्ध-प्रक्रिया में, जो प्रहार उस पर आते हैं, जो टक्करें उसे क्षत-विक्षत करती हैं, वे उसके अस्तित्व में बाहर से संस्कारित, अनेक पूर्वजन्मों से उसकी अवचेतना में अनुबंधित, बाधक-बन्धक शक्तियों को ध्वस्त कर देती हैं। तमस की इन जड़शक्तियों को ही जैन द्रष्टाओं ने कर्म-बन्धन कहा है, और तपस्या द्वारा इनके निरसन को ही उन्होंने कर्मनाश या कर्म की निर्जरा कहा है। निःशेष कर्म-निर्जरा के लिये महावीर जान-बूझकर भी अनेक बार खतरों और संकटों में उतरे। इस तरह उनकी आत्मा ने विश्व की तमाम सत्ताओं के साथ एक निर्बाध सायुज्य-सम्बन्ध स्थापित किया । अणु-अणु के साथ वे योगीश्वर परम प्रेम में संयुक्त हो गये । तब ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनी और अन्तराय कर्मों के वे आवरण अनायास विदीर्ण हो गये, जिनसे आवृत होने के कारण आत्मा विश्वजगत का सही ज्ञान-दर्शन नहीं कर पाती, उसके साथ पूर्ण संवादिता में नहीं जी पाती । क्योंकि उक्त चार कर्म आत्मा को सम्यक्-दर्शन प्रकृति के घातक होते हैं। इन कर्मों का निःशेष नाश होने पर अनायास ही आत्मा के भीतर प्रच्छन्न केवल-ज्ञान का सूर्य प्रकट हो उठता है, और उससे लोकालोक प्रकाशित हो उठते हैं। इस कैवल्य उपलब्धि तक पहुँच कर ही, द्वितीय खण्ड समाप्त हो जाता है। दिगम्बर ग्रंथों में महावीर चरित नहीं वत् है, सो उनके तपस्याकाल के भी कोई वृत्त या तथ्य उनमें नहीं मिलते। पर श्वेताम्बर कहे जाते आगमों में महावीर के तपस्याकाल का कड़ीबद्ध सांगोपांग विवरण मिलता है। प्रवज्या के अगले ही दिन से, ठीक केवलज्ञान प्राप्ति की पूर्व सन्ध्या तक उनके साधना-मार्ग में जितने विघ्न-उपसर्ग आये, अथवा जिन विपत्तियों का उन्होंने सन्मुख जाकर वरण किया, उन सब के पूरे ब्योरे आगमों में मिलते हैं। इन उपसर्गों में, उनकी उत्कटता की मात्रा के अनुपात में होने वाली विशिष्ट कर्म-निर्जरा और तज्जन्य विशिष्ट श्रेणी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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