Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 372
________________ ३६२ में व्याप गया है, जिस में प्राणि मात्र सांस ले रहे हैं। मेरी मानसिक देह यों अपने ही भीतर अपसारित हो गयी है, जैसे ऊर्णनाभ ने अपने ही फैलाये तंतुजाल को अपने में वापस खींच लिया हो। मेरा वह एक मन असंख्य हो कर, सर्व के मन-मनान्तरों में अभिसार करने चला गया है। उसकी कल्प-शक्ति में से हजारों नव-नूतन आकारों के विश्व रूपायित हो रहे हैं।" "और अब देख रहा हूँ, अपने विज्ञानमय शरीर को। इतना निश्चल है यह, कि इसमें लोक के सारे शरीरों की गति-विधि एकाग्र आश्लेषित अनुभव होती है। अन्तर्भावित । इतना निरावेग और वीतराग है यह, इतना सम्पूर्ण समर्पित, कि इस में सारे ही तन मनों की सूक्ष्मतम सम्वेदनाएं अनायास स्पन्दित हैं, सम्वेदित हैं, संस्पर्शित हैं। इसी से मानो यह एक श्वेत अग्नि का स्तंभित पुंज हो कर रह गया है। इसमें से भीतर के ज्योतिर्मय शरीर एकएक कर खुलते दिखायी पड़ते हैं।"रक्त ज्योति के कोश में से, श्वेत ज्योति का शरीर प्रकट हो आया है। उस श्वेत ज्योति की भास्वर कंचुकी में से कृष्ण ज्योति-पुरुष आविर्भूत हो गये हैं। ___ और सहसा ही उनके हृदय-कमल में से एक नीलेश्वरी ज्योतिर्-कन्या उठ आयी है। अपने उरोजों के बीच के अन्तरिक्ष में वह अधर धारण किये है, मेरे इस प्रस्तुत तेजल शरीर को। अर्द्धपारदर्श रोशनी का एक नीहारिल पर्दा सहसा ही हट गया। और भीतर तरल स्फटिक के आभा-कोश में, अपने शरीर के एक-एक अवयव, उसकी क्रियाओं और परिणमनों को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। पराग-सी मज्जा के आवरण में अत्यन्त लचीली अस्थियों का लरजता-सा ढाँचा । असंख्य शाखा-जाल वाले स्नायु-मण्डल की शिराओं में अविरल प्रवाहित रक्त : दूध की अनगिन नदियों का धारा-संगम। अपनी बहत्तर हजार नाड़ियों में स्पन्दित श्वास की सारी गतिविधियों को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। हृदय के पद्माभ अन्तपुरः में, नील ज्योतिर्मय शैया में रमण करती अपनी आत्मा की सती सुन्दरी को प्रत्यक्ष साक्षात् कर रहा हूँ। सम्मुख होते ही तत्काल उसकी सुनग्ना प्रभा में उत्संगित हो गया हूँ।" ___ "एक महावीर्य का हिल्लोलन । और उसके प्रवाह में प्रबलं ओज से अपने तेजसिक मांस-बन्ध का भेदन कर, मैं त्रिकालीन इतिहास की नाड़ियों में संचरित हो गया हूँ। उसके सारे संघर्षों, युद्धों, संत्रासों, रक्तपातों के बीच अडिग पैरों चल रहा हूँ। और मेरी शिराओं की रक्ताणु-दीवारों में सारा इतिहास-प्रवाह एक जीवन्त शिल्प की तरह उत्कीणित है। ऐसे दुर्दान्त तेज का विस्फोट मेरी धमनियों में सम्हला हुआ है, कि चाहूँ तो इसी क्षण समस्त विकृत और विसम्वादी इतिहास को ध्वस्त कर सकता हूँ। और निमिष मात्र में, एक सुसम्वादी नूतन विश्व को अभी और यहाँ उपस्थित कर सकता हूँ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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