Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 330
________________ 'लेकिन जब मुद्दतों बाद तुम्हें लेकर चम्पा लोटा, तो माता-पिता मर चुके थे । हवेली ध्वस्त परित्यक्त पड़ी थी । नगर-जनों ने मुझे पहचानने तक से इनकार कर दिया। खैर, आख़िर किसी तरह हमने हवेली में प्रवेश पाया । धूल - जालों से ढका मेरा पैतृक ऐश्वर्य ध्वंस के ढेर-सा पड़ा था। इसी विनाश के बीच हमने अपने प्यार का पलंग बिछाया । तुम्हारी इस वक्ष-कोर से क्षणभर भी दूर रहना मुझे सदा असह्य रहा । वह वक्ष नहीं रहेगा ? हो नहीं सकता, उत्पला !' ३२० ... 'हो गया देवता ! सामने आना बाक़ी है। उस वक्ष को राजयक्षमा हो गया, सागरसेन ! उसमें छिद्र पड़ गये । उसमें जन्तु लग गये । वह जन्तुओं का खाद्य हो गया । और अब हड्डियों की राख ... 'ओह उत्पला, मेरी शरण, मेरी मोक्ष ! ऐसा न कहो । सहन नहीं होता ।' 'सच ही तो कह रही हूँ । किसी भी क्षण अब यह शरीर छूट सकता है, सागर ! यह मेरा ही शरण नहीं, मोक्ष नहीं, तो तुम्हारा कैसे हो सकता है ? 'नहीं मुझसे नहीं सहा जाता । हटा लो सर । तुम्हारे सर को झूठ में पडा नहीं देख सकती ! ' 'नहीं, यह मेरे लिये झूठ नहीं। लाओ, लाओ, लाओ मेरी छाती मुझे दो, पल्ली !' सागरसेन उद्भ्रान्त विह्वल हो कर उस अस्थिशेष वक्ष में आलोड़ित होने लगा । उत्पला को उत्कट खाँसी का दौरा पड़ा । उसने ढेर सारा खून उगल दिया । वह मृतवत् ढलक पड़ी। कुछ क्षणों बाद बहुत क्षीण कँठ से वह बोली : 'देखो, यह है तुम्हारा प्यारा वक्ष । यह दुर्गन्धित सड़े रक्त का ढेर ! ' और उसकी मुंदी आँखों से आँसू चूते आये । 'पल्ली, तुम इससे अधिक हो मेरे लिये । इससे अतिरिक्त बहुत कुछ हो । .... 'छाती खाली हो गई, सागर ! खोखल ! आह, साँस सांस..' और उत्पला पर भयंकर श्वास का आक्रमण । अन्तिम साँसें । ...' 'अरिहन्त . अरिहन्त हंसः हंसः ! सागर, अपने में सुखी रहना । ... श श शरण मो मो मोक्ष केवल वहीं है । मैं चली, सागर ! सहसा ही दीप निर्माण हो गया । और उस अँधेरे में हंस पलायन | " कर गया । Jain Educationa International चीख़ कर सागरसेन शव के वक्ष से लिपट गया, और उस पर सर रगड़रगड़ कर रोने लगा । ... For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400