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'लेकिन जब मुद्दतों बाद तुम्हें लेकर चम्पा लोटा, तो माता-पिता मर चुके थे । हवेली ध्वस्त परित्यक्त पड़ी थी । नगर-जनों ने मुझे पहचानने तक से इनकार कर दिया। खैर, आख़िर किसी तरह हमने हवेली में प्रवेश पाया ।
धूल - जालों से ढका मेरा पैतृक ऐश्वर्य ध्वंस के ढेर-सा पड़ा था। इसी विनाश के बीच हमने अपने प्यार का पलंग बिछाया । तुम्हारी इस वक्ष-कोर से क्षणभर भी दूर रहना मुझे सदा असह्य रहा । वह वक्ष नहीं रहेगा ? हो नहीं सकता, उत्पला !'
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'हो गया देवता ! सामने आना बाक़ी है। उस वक्ष को राजयक्षमा हो गया, सागरसेन ! उसमें छिद्र पड़ गये । उसमें जन्तु लग गये । वह जन्तुओं का खाद्य हो गया । और अब हड्डियों की राख ...
'ओह उत्पला, मेरी शरण, मेरी मोक्ष ! ऐसा न कहो । सहन नहीं होता ।' 'सच ही तो कह रही हूँ । किसी भी क्षण अब यह शरीर छूट सकता है, सागर ! यह मेरा ही शरण नहीं, मोक्ष नहीं, तो तुम्हारा कैसे हो सकता है ? 'नहीं मुझसे नहीं सहा जाता । हटा लो सर । तुम्हारे सर को झूठ में पडा नहीं देख सकती ! '
'नहीं, यह मेरे लिये झूठ नहीं। लाओ, लाओ, लाओ मेरी छाती मुझे दो, पल्ली !'
सागरसेन उद्भ्रान्त विह्वल हो कर उस अस्थिशेष वक्ष में आलोड़ित होने लगा । उत्पला को उत्कट खाँसी का दौरा पड़ा । उसने ढेर सारा खून उगल दिया । वह मृतवत् ढलक पड़ी। कुछ क्षणों बाद बहुत क्षीण कँठ से वह बोली :
'देखो, यह है तुम्हारा प्यारा वक्ष । यह दुर्गन्धित सड़े रक्त का ढेर ! ' और उसकी मुंदी आँखों से आँसू चूते आये ।
'पल्ली, तुम इससे अधिक हो मेरे लिये । इससे अतिरिक्त बहुत कुछ हो ।
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'छाती खाली हो गई, सागर ! खोखल ! आह, साँस सांस..' और उत्पला पर भयंकर श्वास का आक्रमण । अन्तिम साँसें ।
...'
'अरिहन्त . अरिहन्त हंसः हंसः ! सागर, अपने में सुखी रहना । ... श श शरण मो मो मोक्ष केवल वहीं है । मैं चली, सागर ! सहसा ही दीप निर्माण हो गया । और उस अँधेरे में हंस पलायन
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कर गया ।
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चीख़ कर सागरसेन शव के वक्ष से लिपट गया, और उस पर सर रगड़रगड़ कर रोने लगा ।
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