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अपने शरीर की विपुल उच्छवास -प्रभा से उसने समस्त आकाश-मण्डल को कुर्वरित कर रक्खा है । ____ मरुत-मुद्रा से मंडित, ओ वायु-पुरुष, मैं तुम्हारे आमने-सामने हूँ। जलसीकरों से निर्मित तुम्हारे भामण्डल में, अपने जन्मान्तरों के भस्मीभूत कर्मचक्र को विशुद्ध पुद्गल द्रव्य में विगलित देख रहा हूँ।"कल्पान्त काल की
आँधियाँ एक त्रिक में स्थिरीभूत हो कर, तुम्हारे आसपास एक निलय रचे हुए हैं। उसके केन्द्र में व्योमातीत व्योम के निगूढ़ विवर में तुम्हारा अधिवास है। नीलांजन घन की सान्द्र छाया तले, देख रहा हूँ तुम्हें, वातप्रमी जाति के हरिण पर सवार । वेगीले विहार से लीलायित तुम्हारे दुर्ललित हाथों में दोनों ओर दोलायित हैं, शाल वृक्ष की शाखायें । उनके छोरों पर रह-रह कर किसलय फूट रहे हैं।"
उन्चास पवनों के झकोरों पर आरोहित, पुष्पित शालों की वनलेखाएँ।... जो मेरी पश्यन्ती दृष्टि के उन्मीलन में, जाने कब अपसारित होकर, एक श्वास मात्र हो रही, मेरे नासापुट पर स्तम्भित ।...
और अब मेरे समक्ष है, गरुड़राज की समग्र मूर्ति, समस्त आकाश को परिव्याप्त किये हुए। जिसकी परात्परगामी उड़ान को देखा नहीं जा सकता। अमिताभ हैं उसके दिगन्तरगामी पंख । जो इतने वेगीले हैं, कि गति का यह चरम वेग ही, परम स्तब्धता बन गया है। उनके विराट् प्रसारों पर सरसरा रहे हैं जय और विजय नामा महासर्प । जिनकी मणि-प्रभाओं से दिशाओं में उजालों के वरण्डे खुलते जा रहे हैं।
अनन्तों में उड्डीयमान प्रज्ञा-पुरुष, गरुड़ देवता । अपने अधो भाग में पृथ्वी को समेटे । अपने आभोग में स्वयम्भू-रमण समुद्र से वलयित। उरस्थल में अग्नियों की वनमाला धारण किये। मुख-मण्डल में असंख्य वायु-पटलों से प्रकम्पित । तुम्हारी प्रज्ञा में तत्व अपनी तमाम विविधताओं के साथ प्राकट्यमान है। कृतज्ञ हूँ तुम्हारा , हे महाविज्ञान, कि तुम्हारे भीतर पाद से मस्तक तक यात्रा करते हुए, मैं तत्व की हर सम्भव लीला में लीलायित हुआ, अभिव्यक्त हुआ। उसके भीतर-बाहर को एकाकार पार किया। अमूर्त से मूर्त में में, और मूर्त से अमूर्त में एक बारगी ही अन्तर-संक्रमित हुआ। और अब तुमसे उत्तीर्ण हो कर, फिर अपने आत्म के और भी अगले तट पर आ खड़ा हुआ हूँ। और देख रहा हूँ, तुम्हारे एकाग्र सम्पूर्ण विग्रह को । आकाश-मण्डल को कभी अपने सर्वव्यापी पंखों से प्रसारित करते हुए, कभी अपसारित करते हुए, उससे भी परे उड्डीयमान ।
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