Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 364
________________ कैवल्य के प्रभा-मण्डल में [ वैशाख शुक्ला दशमी : अपराह्न ] हठात् भीतर अतल में एक महा घटस्फोट हुआ । ऊपर के अज्ञात में अनादि अन्धकार का विराट् गुम्बद विदीर्ण हो गया । परात्पर हृदय की कमल-कर्णिका में अनायास शुभ्र निरंजन ज्योति प्रस्फुटित हो उठी। एक ही समय में उसमें समस्त लोकालोक प्रकाशित हो उठे । 'अकस्मात् मेरा आसन उत्थान हो गया । अन्तरिक्ष के अधर में उत्फुल्ल अम्भोज की तरह आसीन हूँ । मस्तक के चारों ओर असंख्यात सूर्य-चन्द्रों का प्रभा मण्डल उद्भासित है । सारे ही ग्रह-तारा मण्डल उसमें तरंगित हैं । मैं बाहर की ओर उन्मुख हुआ । मेरी आँखें निखिल पर खुल उठीं । भीतर और बाहर भिन्न नहीं रहे। वे मेरे एक ही ज्ञानचक्षु के दो अविनाभावी आयाम हो गये। दिशाएँ दर्पण की तरह स्वच्छ हो गई हैं । सर्वत्र शाश्वत वसन्त का मलयानिल बह रहा है । सारी ही ऋतुओं के फल-फूल एक साथ खिल आये हैं । मेरे तृतीय नेत्र के उन्मीलन में झलका : तीनों लोक और तीनों काल अनन्त मण्डलाकार मेरे चारों ओर चक्रायमान हैं । अनादि से अनन्त काल तक की सृष्टि एकाग्र मेरे चैतन्य की लौ में आलोकित है । आगत, विगत, अनागत की चौरासी लाख जीव-योनियाँ मेरी प्रत्यक्ष दृष्टि में परिभ्रमणशील हैं। हथेली पर रक्खे सहस्र पहलू स्फटिक में, जैसे त्रिलोक और त्रिकालवर्ती पदार्थ और प्राणि मात्र के समस्त परिणमन का एकाग्र अवबोधन कर रहा हूँ । सूक्ष्मतम परमाणविक रज के असीम धूमिल प्रवाह देख रहा है । और उसी क्षण उनके भीतर से खुलते रौप्य और सुवर्ण रज के प्रवाह देख रहा हूँ । कितनी सुनम्य और मृदु है शुद्ध द्रव्य की यह धारा । कितनी सम्वेदनशील, संस्पर्शशील । भावों के अनुसार यह रूपायित होती चली जाती है । असंख्यात रूप-आकार प्रकट होते हैं । प्राणियों की योनियाँ परम्परित होती हैं । अपने आसपास मण्डलाकार घूमते देख रहा हूँ, नाना जीव-गतियों के विश्व | पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश के संन्धान । खनिज धातुओं के विश्व | पृथ्वी, अप, तेज, वायु, आकाश के संन्धान । खनिज धातुओं के Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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