Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 369
________________ ध्याता हूँ, भाता हूँ, चाहता हूँ, खोजता हूँ, उसी रूप में यह आकृत, भावित, सम्वेदित हो कर मद्रूप हो जाती है। इस संविद्रूपा महामाया के मर्म को न्याय के नयों और तर्क के तोड़ों से नहीं अवगाहा जा सकता । केवल अनुभवगम्य है, इस सुनम्या का पूर्णालिंगन । विचार, वितर्क, विश्लेषण के ऋमिक, खण्डखंण्ड ज्ञान से वह गम्य नहीं। पूर्ण ज्ञान और पूर्ण सम्वेदन की एकात्मिक लौ में ही उसे अनुभूत किया जा सकता है । ____ आत्म-सम्वेदन ही विश्व-सम्वेदन हो गया है। विश्व-सम्वेदन ही आत्मसम्वेदन हो गया है। आत्मबोध के बिना विश्वबोध सम्भव नहीं। विश्व-बोध के बिना आत्म-बोध सम्भव नहीं।" __ओ मेरे युग-तीर्थ के लोगो, शास्त्र पढ़ कर सत्ता-स्वरूप और आत्म-स्वरूप को नहीं जान सकोगे। अपने नितान्त स्वतंत्र, कुँवारे सम्वेदन, और अपने नितान्त निजी वैयक्तिक आत्म-संघर्ष से गुजर कर ही आत्मा और सत्ता की शाश्वती सती का पाणिग्रहण तुम कर सकोगे : उसका पूर्णालिंगन पा सकोगे। न्याय और तर्क के सिद्धान्त रच कर, विज्ञान-शाला की द्राविणी में उसे अनेक रसायनों द्वारा विश्लेषित करके, गणित के बीज, अंक और रेखा में उसे गिन और माप कर, तुम उसका किचित् भी अनुमान न पा सकोगे। शास्त्रों और ज्ञान-विज्ञानों ने आत्मा की सती-सुन्दरी को सदा ही व्यभिचरित और लहूलुहान किया है। अरे उसे कसो नहीं, छेदों नहीं, भेदो नहीं, बांधो नहीं, छिन्न-भिन्न न करो। निःशेष समर्पित हो जाओ उसकी गोद में । और वह तुम्हें अपने आँचल में ले कर, अपना गोपनतम सत्य और सौन्दर्य तुम्हारे भीतर अनायास आलोकित कर देगी। मैं आत्मालिंगन के उसी उत्संग में से बोल रहा हूँ। मैं सर्वार्थ-सिद्धि के अनुत्तर विमान की रेलिंग पर खड़ा हूँ, और मेरे मस्तक पर प्रारभार पृथ्वी की अर्द्ध-चन्द्राकार सिद्ध-शिला जाज्वल्यमान है । वही मेरा अन्तिम घर है। उसमें अनन्त कोटि सिद्धात्माएँ अपने विशुद्ध ज्ञानशरीर में, स्वप्रतिष्ठित हैं। अपने आत्यन्तिक निजत्व में, वे नित्य घर पर है। और उसी क्षण वे अपने ज्ञान की अनन्त ज्योति से त्रिलोक और त्रिकाल के हर परिणमन में रमण कर रही हैं। ...और उसी एक कालांश में मैं लोक के केन्द्र में शाश्वत विद्यमान जम्बूवृक्ष के तले आसीन हूँ। और उसी एक अविभक्त मुहूर्त में, लोक को घेर कर अवकाश में पड़े तीन वात-वलयों की सन्धियों में खेल रहा हूँ। मेरे एक ओर है सत्ता का अनन्तगामी चिर-चंचल प्रसार । मेरे दूसरी ओर है Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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