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राज्य । वनस्पति राज्य । निगोदिया जीवों की नदियाँ । नाना जाति के तिर्यंच कीट, पतंग, पशु, पंखियों की उफनाती नदियाँ। नरकों की यातनानदियाँ। काल की महाधारा में मनुष्य का मृत्यंजयी पुरुषार्थ । उसके बहुआयामी संघर्ष । उसके जय-पराजय, विकास-प्रगति के अभियान । उसके लीलाखेल, प्रणय-प्यार, विद्या-विलास, कला-सृजन, अन्वेषण-आविष्कार । सौन्दर्य, तेज और ज्ञान के महा स्वप्न । उसके वैभव, ऐश्वर्य, ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ । आत्मजय और विश्वजय का उसका परम पुरुषार्थ । काल के भाल पर अंकित उसकी लब्धियों के अमृत-लेख । सहस्राब्दियों व्यापी पुराण, इतिहास, काव्य, दर्शन, कला, शिल्प, स्थापत्य में व्यक्त, व्याप्त । अनादि से आगामी तक का शृंखलित इतिहास। ....यह सब मानो एक काल-परमाणु में एकाग्र देख रहा हूँ। इस देखने में कोई आगा-पीछा नहीं है। समस्त को अपनी अन्तर-ज्योति के एक मण्डल में देख रहा हूँ। अनुक्रमिक नहीं है मेरा यह दर्शन और ज्ञान । अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा के क्रम में नहीं देखता, नहीं जानता। सर्व को एक ही समय में एकाग्र, समग्र, संयुक्त देख-जान रहा हूँ। जानने का कोई संकल्प नहीं । ज्ञाता और ज्ञेय का कोई विकल्प नहीं । ज्ञाता-ज्ञेय में, और ज्ञेय ज्ञाता में सहज युगपत् प्रतिबिम्बित हैं। दर्पण में दर्पण का अभिसार। गहराव में गहराव का आलिंगन । ज्ञान का धारासार प्रवाह । ज्ञेय का धारासार प्रवाह । उनमें परस्पर संगुम्फन, संक्रमण, अतिक्रमण, अन्तःक्रमण । सचेतन भी, अचेतन भी ज्ञानात्मक भी, अज्ञानात्मक भी। और उस टकराव में से क्षरित होती शुद्ध रस, आनन्द, सौन्दर्य की अक्षत धारा ।कला और सृजन का निरन्तर काम-कला-विलास । नाद, बिन्दु और कला का अनवरत लीला-खेल। ___ मैं परमाणु से लगा कर ब्रह्माण्ड के हर अस्तित्व तक की भीतरिमा में झांक रहा हूँ। एक तृण के कम्प में भी अपने ज्ञान से संचरित हूँ,
और भूगर्भ से लगाकर मानुषोत्तर पर्वत के आरपार तक मेरा वीर्य अनायास अभिसारित है। हर वस्तु, हर व्यक्ति, हर. सत्ता मेरे हृदय में अपना भेद खोल रही है। हर परमाणु के ज्योतिर्मय कक्ष में निरन्तर चिद्विलास कर रहा हूँ। मैं हर पत्ती और फूल की रगों में जीवन का रुधिर बन कर परिणमनशील हूँ। मैं त्रिलोक और त्रिकाल के हर पदार्थ और आत्मा के साथ घर पर हूँ-अभी और यहाँ। मैं उनके अत्यन्त आत्मीय एकान्त में हर समय उनके साथ हूँ। उनके भाव और अभाव का समान संगी हूँ। महाभाव में उनके साथ तदाकार हूँ। महाज्ञान में उनका ज्ञाता-द्रष्टा साक्षी हूँ। मैं एक ही समय में उनके साथ तद्रूप हूँ, और फिर भी उनसे भिन्न, परे स्वयम् आप हूँ। असम्पृक्त, एकमेव अखण्ड सत्ता-पुरुष । जिसके एक अंश में सब कुछ परिणमनशील है, और स्वयम् अंशी इनसे अतीत हैं।
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