Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 357
________________ ३४७ वेदना को कौन समझेगा ? कौन कौन "कौन ? अरे कोई सुनता है कहीं मेरी पुकार, मनुष्य के बेटे की पुकार, सत्ता के इन अन्तहीन मण्डलों में ?... "लो, उस केन्द्रीय हवन-कुण्ड का 'र' से अंकित हुताशन एक विकराल जिव्हा में प्रलम्बित होता हुआ आकाश को भेद रहा है। असत्ता के जड़ रिक्तों से टकरा रहा है। और वहाँ, सत्ता और असत्ता की अलक्ष्य सन्धि पर, तुमुल अन्धता का भीषण प्रकोप । उसमें से एकाएक कोई विमान पुरुष कूद कर वेदी पर आ खड़ा हुआ है। अज (बकरे) पर सवार है, वह भजन्मा। और वह मुझे ज्वाला की वाहुएँ उठाकर आवाहन दे रहा है : _ 'ओ रे शाश्वत मनुज, आदि मनु-पुत्र, आओ, आओ, आओ, यह 'रंकारी' हुताशन तुम्हारी आहुति मांगता है। ताकि जड़त्व के सूक्ष्मतम हठीले खोल कट सकें, और वैश्वानर निधूम हो कर, निर्बाध हो कर, अपने विशुद्ध सौन्दर्य भौर सम्वाद के विश्व को मनुज की पृथ्वी पर प्रकट कर सकें।' और अजारोही अंगिरा ने अपने हाथ में थमे सारांशी अग्नि के आलात (ज्वलित काष्ठ) को अधिकतम ऊपर उठा कर उसे एक चुनौती की तरह मुझ पर फेंका। उसे मैंने अपने नग्न हृदय के कमल में झेल लिया । और लो, मैं आपाद-मस्तक विशुद्ध, पारदर्श अग्नि-शरीर में सर्वत्र व्याप्त हो उठा। "और काल के शून्यांश मात्र में, जाने कब, मैं एक ही सहस्रपाद छलांग में, उस असत्ता से संघर्षित हुताशन की 'रंकारित' शिखा में कूद पड़ा। विशुद्ध अग्निला से विशुद्ध वैश्वानर का चरम आलिंगन । उसकी निविड़ता में, चिरकाल के अटल, अजेय कर्म-भूभृतों का भंजन, विस्फोट । श्वेत भस्मों की ढेरियों से व्याप्त अन्तरिक्ष के भीतरी प्रसार । ...और मेरी आग्नेय सांसों में घुमड़ उठे प्रलय के प्रभंजन । उनमें उड़ कर विलीयमान होती, वे पांडुर भस्म की राशियां । अफाट पर्जन्यों का तुमल गर्जन। हवा के दिगन्तवाही पालों में पिघल कर विलीन हो रही बिजलियां। विशुद्ध वायु की तरंगमाला। और उस पर आरोहित मैं । 'कहाँ "किस मोर".? "ओ गरुड़ देवता, देख रहा हूँ, यह तुम्हारा मुख-मण्डल है। सकल भुवनों में व्याप्त अनेक पवनों की अलकावलियों से यह मंडित है। देख रहा हूँ, कि तक्षक और महापद्म नामक शूद्र जाति के दो सौ के कुण्डल यह धारण किये हुए है। उन्हीं की फूत्कार से विस्फूजित हो कर पवन दसों दिशाओं में बहता है। चौदहों भुवनों के आभोग को उसने कम्पायमान कर रक्खा है। अपने द्वारा उड़ाये हुए भ्रमरों की कालिमा, तथा उससे मिश्रित Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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