Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 355
________________ ३४५ क्षितिजहीन तरलता का मण्डल । दिशा, दर्शन , जान के तटों को बहाता हुआ । प्रवाह और परिणमन का नग्न साक्षात्कार । अपमण्डल, जलजलायमान विश्व : जल, जल, अन्तहीन जल । मण्डलाकार, फिर भी मण्डलातीत । पदम और कर्कोटक नामक आशिविष सों से आवेष्टित । सर्प, जिनमें क्षीर समुद्र के पटल आबद्ध हैं। बंध कर भी जो अनुपल बन्धन तोड़ कर नित नव्य कुण्डलों में ऊपर की ओर उत्थायमान है। अपने प्रभाजाल से ही मानो जो आकाश को आविर्मान कर रहे हैं। उन सों के बीच समर्थ वरुण दिक्पाल ने गरुड़ का उत्संग निर्मित किया है । वह जल के बीजाक्षरों से स्फुरायमान है। श्वेत पुण्डरीक वन पर तरंगित अक्षरमाला। उनमें अनुक्षण जल शुक्ल कमलों में आकृत हो रहा है। और कमलजाल जल में विसर्जित हो रहा है। ''जलप्रभा का तात्विक पारावार। उसके केन्द्र में अर्द्धचन्द्राकार वरुणमण्डल । उसमें से विच्छुरित होते जल-किरणों के वितान । इन्द्रधनुष का एक विराट् गुम्बद् । उसके छोरों पर से फूटते दिग्वलय । उस गुम्बद तले जल-हरिणी पर आरूढ़ वरुण-देवता । उसके हाथ में है लहरों का पाश । .''लो, मैं आया तुम्हारे पाश में। लेकिन यह क्या, कि कोई किसी को बाँध नहीं पा रहा । लहरें, जो आप ही अपने को बाँध रही हैं, आप ही .अपने को खोल रही हैं । लहरें, जिनमें बँध कर, मुक्ति के उन्मुक्त क्रोड़ में खेल रहा हूँ। "आप्लावन, आप्लावन, आप्लावन ! एक साथ ऊपर के अगम्य में आरोहण, नीचे के अथाह में अवरोहण । अवगाहन, अवगाहन, अवगाहन! अतल के वनस्पति-वनों में महा जलसर्प की तरह संसरित हूँ।“ओह, बड़वानल की मण्डलाकार राशियाँ । हिमानी की अन्तर्निहित अग्नियों में स्नान कर रहा हूँ।" ""और लो, त्रिवली के त्रिकोणाकार ध्रुव-प्रदेश में आ पहुँचा हूँ।" उसके केन्द्र में, वासुकी के फणामण्डल पर मगर-मच्छों की शैया । उस पर अंगड़ाई लेकर उठ रही है, यह कौन श्वेताभ जंलागना ! लहरों की हजारों बांहों से परिवेष्टित मैं, मकर के जबड़ों में यात्रित। उस जलान्धकार में, कटि से कटिसात् बाहुबद्ध जलिमा के साथ संघर्षण। समुद्र-मंथन । अपने ही वक्ष में से तड़कती बिजलियाँ। दारुण वज्राघात । उसमें से विस्फोटित जलराज्य की गहिरम अन्तरिमाएँ। उनमें दोपित सीप, शंख, मुक्ताफल, प्रवालों के ज्योतिर्मय कक्ष। कालकूट विष के प्याले में उफन रहे अमृतफेन । कहाँ गई वह वरुण सुन्दरी ? वह केवल मेरी ही आँखों में छलकती वारुणी हो रही । मेरी ही वैश्वानर, मेरे ही आत्म में से अविरल प्रसारित विद्युत् का पारावार। उसमें से तरंगित त्रिकालवर्ती अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड। मेरी ही Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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