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के भीतर कुछ अनावरित हो रहा है। सहसा ही जैसे पर्दा सिमट गया। नागचम्पा की कणिक। जैसा एक पीताभ चतुष्कोण सामने आया। जो निगाहों के पार तक सर्वत्र फैला है । उसके प्रसार में बहुत कोमल ज्वारों का आभास । एक रेशमीन ऊर्मिलता, बेमालूम कम्पन । ओ, यह पृथ्वी का मूलगत मण्डल है। इसके हार्द में पीले कमलों का शरीर लेकर यह कौन उठ रही है ?... इसके रोम-रोम से केसर-पराग की धुलि झड़ रही है। इसके अंग-अंग में सुगन्ध के सरोवर लहरा रहे हैं। ओ पृथा, वज्र-कठोर है तुम्हारा यह कोमल बन्धन । तुम्हारे कटिबन्ध को तोड़ने के लिये कई योगी जनम-जनम जूझते हैं। पर तुम्हारी इस वज्रता के भीतर कैसे रस और मार्दव की सुवर्णा छुपी है । सुवर्ण-मल्लिका।
"तुम्हारे शाश्वत कौमार्य के कटिबन्ध को भेदे बिना, तुमसे मिलन साक्षात्कार सम्भव नहीं। एक प्रचण्ड प्रवेग से सर के बल तुम्हारे उरुमूल में फँसता हुआ, तुम्हारी मेखला के गहरे होते प्रदेशों में उतरा रहा हूँ। ..'ओ, यहाँ गहन-गहीर अँधेरे में दीपित हैं रत्नों की खाने, सुवर्ण-रौप्य की खानें, ताम्र की खाने, अभ्रक और पारद की खाने, लोह की खानें, फौलाद के परकोट । वज्र-पंजर के चतुष्टय से आवेष्टित है तुम्हारा यह दुर्ग ।
और इसके केन्द्रस्थ सुमेरु में तुम्हारा अधिवास है। कपिश-पीत लोहित रंग के दो सर्प, वासुकी और शंखराज, परस्पर गुंथ कर तुम्हारे कटिमण्डल को जकड़े हुए हैं। उनकी शिरोमणियों के सहस्रार में अपार अग्नियों के जंगल हैं। और मैं ज्वाला के कितने ही तोरणों से अनायास पार हो रहा हूँ।
और लो, वहाँ आ पहुँचा हूँ अचानक, जहाँ तुम्हारी त्रिवली में सुवर्णजल का एक सरोवर है, गहन शान्ति में ऊमिल । पृथा, आद्या कुमारी, तुम्हारे कौमार्य ने मुझे कृतार्थ किया। यहाँ तुम्हारे पूर्णालिंगन में आते ही, एक अद्भुत अतिक्रान्ति अनुभव हो रही है । तुम्हारी उरु सन्धि में से एक सुवर्ण कमल की तरह प्रस्फोटित हो कर ऊपर उत्क्रान्त हो गया हूँ। ___ एक घनसार तरलता में अवगाहन की अनुभूति हो रही है। अन्तरतम के ज्वारिल दबावों का घनीभूत संस्पर्श । चेतना के सुदूर तीरों में तड़फती विद्युल्लेखाएँ । उनको बाँहों में आन्दोलित मेघों के घहराते पटल । जो बात की वात में धारासार वरस कर समुद्र का श्यामल प्रसार हो गये हैं। ___ओह, यह वरुण का जलराज्य है। इसकी अगम्य गहराइयाँ मुझे पुकार रही हैं । 'लो, मैं आया, मैं आया वरुण देवता, तुम्हारे तारल्य के लोक में।
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