Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 353
________________ आत्मा का परमाणु विस्फोट "इन्द्रियों के द्वार बाहर से बन्द होकर, एक अन्तर्मुख बोध में एकाग्र हो गये हैं। मनातीत स्तब्धता में स्थिर हो गया हूँ । साथ ही तलातल में उतरते चले जाने की अनुभूति हो रही है। एक सान्द्र सघनता में चेतना घनीभूत होती जा रही है। "और देख रहा हूँ सामने, कि गरुड़राज के पगों से उपस्थ तक व्याप्त तात्विक पृथ्वी के राज्य में संक्रमण कर रहा हूँ। धूलि और पंक से पार हो कर, एक अपारदर्शिता में घिर गया हूँ। नितान्त दृश्यहीनता में किसी अटल अवरोध से टकरा रहा हूँ। एक ऐसी स्थिरता और घनत्व, जिसमें ठहराव है। चीजें टिक सकती हैं। आधार पा सकती हैं। ओह, धारिणी पृथ्वी ! अवरुद्ध करती हो, बांधती हो, रोकती हो ऊर्जा के प्रवाह को। ताकि गर्भाधान कर सको। अपनी प्रतिबद्धता में से पिण्ड को प्रकट कर सको। ओ उर्वी, तुम उत्पन्न करती हो, सृजन करती हो । कौन कहता है, कि तुम जड़ तत्व हो ? तुम तो माँ हो । माँ अचेतन कैसे हो सकती है। वह तो सृष्टि की स्वतः स्फूर्त प्रज्ञा है। तुम तो दिये की तरह प्रकट चिन्मति हो । जिनेश्वरों ने तुम्हें आत्मा की एक पर्याय, पृथ्वीकाय देखा और जाना है। भौतिक यों कहा, कि तुम नित्य भवमान हो, हो रही हो । निरन्तर भव्य हो । जो सदा अनन्त-कोटि पिण्डों में प्रकट हो रही है, वह तो जीवन की अजस्र धारा है। उसका जड़त्व से क्या सम्बन्ध । - जड़, कूटस्थ यहाँ कुछ नहीं है। मुझे तो सभी कुछ चिन्तमय प्रतीत होता है। चिन्मय यदि दीपक है, तो मृण्मय उसी के प्रकाश में से आकृत लालटेन है। जब पृथ्वी, अप, वायु, अग्नि सभी तत्व जीव-निकाय हैं, तो अजीव को कहाँ खोजूं । मैं वहाँ से गुजर रहा हूँ, जहाँ जीव और पुद्गल के बीच का परोक्ष धागा अनायास सिरा जाता लगता है। जहाँ भवमान भौतिक, और स्थिरमान आत्मिक के बीच का भेद-विज्ञान एक अकथ बोध में विलुप्तप्राय लगता है। ओ माँ धरती, किस कदर खींच रही हो मुझे अपने अन्तरतम कक्ष में। अनिर्वार और विशुद्ध है यह आकर्षण । अत्यन्त कुँवारी कशिश । "लो, मैं आ गया तुम्हारे गर्भ में । अपारदर्श अँधेरा। शुद्ध अन्धकार । "और देखतेदेखते इसमें ज्योति के बिन्दु फूटने लगे हैं। और मानो शून्य की इस यवनिका Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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