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आत्मशक्ति, मेरी ही चितिशक्ति । उसके अतिरिक्त और कहीं कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं।
लो, मैं विस्फोटित हुआ। समस्त लोका काश के आरपार तड़कती विद्युल्लेखाएँ। वह्निमान लोक-पुरुष, नाभि-कमल पर दण्डायमान ।"यह कौन है, यह कौन है ?...
देख रहा हूँ गरुड़राज, यह तुम्हारा उरःप्रदेश है। वह्नि दिक्पाल का महाराज्य । अनन्त और कुवलिक नामा ब्राह्मण जाति के सौ से यह वलयित है, संरक्षित है। अनन्त मण्डलाकार ज्वालाओं की पंक्तियों से यह परिव्याप्त है। ज्वालाएँ, जिनकी आकाश भेदी लपटों में एक महासर्पिणी ऊवों में फूत्कार रही है। अपनी असंख्य कुण्डलियों के ग्रंथिजाल में से उन्मुक्त होती हुई, जो अगम शून्यों के पटलों को कम्पित कर रही है। निस्पन्द स्तब्धता के प्रान्तरों में जो एक स्फोट के हिलोरे जगा रही है।... लो, घटस्फोट हो गया !
..."उस शून्य के केन्द्र में उद्गीर्ण हो उठा एक धगधगायमान हवनकुण्ड। उसकी हुताशन-शिखा पर एक श्वेत कर्पूरी लौ । उसमें स्फुरित है बीजाक्षार 'र' : उसकी 'रंकार' ध्वनि से शून्यों के रिक्त मण्डल सत्ता के संचरण से आपूरित हो उठे हैं। उस हवन-कुण्ड की त्रिकोण वेदी के तीनों कूटों पर अंकित हैं लोहिताक्ष ज्वाला के स्वस्तिक । माणिक्य के स्तवकों में, जैसे सृजक वैश्वानर की मांगलिक अग्नि विराजित है। कला में चित्रित, समाहित, स्तंभित । वह सर्वत्र अन्तर्व्याप्त है।
चित्र-विचित्र सृष्टि के अग्नि-बीज । अज्ञान के अंधेरों में लिपटे हुए। जड़ कर्म-रज के बन्धनों में आवेष्टित । लेकिन चिन्मय अंगिरा उन खोलों को बरबस तोड़ कर फूट निकलते हैं। फिर भी बन्धक रज के अदृश्य तंतुजाल चिन्मय अग्नि शिखाओं के स्वाभाविक उपग्रह को व्यभिचरित करते हैं। ..और विशुद्ध वैश्वानर में कषाय के कड़वे धुंए उठने लगते हैं। और यों मूलतः सुन्दर सृष्टि अपने प्राकट्य और विस्तार में विषम, विसम्वादी हो उठती है। सुन्दर चेहरे में से असुन्दर फूट निकलता है। इस क्षण का अत्यन्त धात्मीय लगता प्यार, अगले ही क्षण बैर हो कर सामने आता है।
परम जीवन अग्नि, विनाश और मृत्यु से धूम्रायित हो जाते हैं। सारी सृष्टि घुटन में जीती है; मौत, अरक्षा और अनिश्चय की सुरंगों में उलझउलझ जाती है। जीवन-जगत एक अन्तहीन संत्रास, और त्रासदी के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता। सारे सौन्दर्य, प्यार और सम्बन्ध अन्ततः अपने ही को धोखा देते दीखते हैं। कहाँ, कैसे इससे निष्कृति हो ? आह, मेरी इस
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