Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 360
________________ ३५० अन्तहीन । मेरी टिकती और उठती एड़ियों से ध्वस्त होते हुए। मेरी उत्तरोत्तर ऊपर को आरोहित छलांगों में-जसत के पर्वत, राँगे की शैलमालाएँ, मेरी पगचापों से अतल में सती हुईं। ताम्र की रक्ताभ शृंगलेखा। तेजोलेश्या का प्रदेश । कर्म-वर्गणाओं का मिश्रित प्रसार । विचित्र विकुर्वित भावों के चट्टानी शिल्प ।। ...पीतल के विशाल परकोटों से आबद्ध कास्य का दुर्भेद्य रहसीला दुर्ग । रौप्य और सुवर्ण की भ्रान्तियों से जगमगाता हुआ। अनेक नाम, रूप, आकार । सुरूप-कुरूप अवयवों, ध्वनियों, चेहरों के प्रसार । कीति, कामिनी, कांचन की सवर्ण साँकलों से आवेष्टित मेखलाएँ, कणिकाएँ, बारहदरियाँ, बुर्ज । साम्राज्य । इतिहास । .मेरी साँसों में प्रलय के प्रभंजन । मेरी पगतलियों से फूटती सत्यानाश की झंझाएँ। मेरी अलकावलियों में धधकते नील-लोहित ज्वालाओं के भुजंगम । काल, जो मेरे केशों में, सुधा-पालित सों की तरह शरणागत है। और उस पर उदित है दुइज की चन्द्रकला । ..."मेरी दिङ्गमण्डल व्यापी छलांगों की झंझा-झांझरों में, धारासार धूल के पर्वतों की तरह झड़ते माया के सुवर्णदेश । 'कर्मों का दुर्भेद्य चक्रव्यूह, चूर-चूर हो कर बहता हुआ । ...और मेरे आरोहमान अगले चरण तले श्वेत रूपाचल । रौप्य की श्रृंगश्रेणियाँ । उपशम श्रेणि का प्रदेश । शिखरों पर शान्त, निश्चल, अनाहत । निर्मल धवलता का प्रसार। पर उसके तलों में दबे पड़े हैं कषायों के अँधियारे स्तूप।... लो, मेरे पदांगुष्ठ से विचूर्णित हुआ रूपाचल का सर्वोच्च शान्त शिखर। पातालों में पर्यवसित वासना के सहस्रों व्याल उस सुन्दर रजत चूड़ा से फूट पड़े। मेरे पिछले पग के टखने में लिपट कर वे शरणागत हुए। मेरे संवेग की उत्ताल अग्निम तरंगों में भस्मीभूत हो कर, वे दिशाओं में विलीन हो गये। .."आरोहण, आरोहण, आरोहण । एक गभीर अवगाहन की अनुभूति । मेरे कटि-प्रदेश को मण्डलित किये अभ्रक की श्रेणियाँ । मेरे प्रशम के संवेग से विर्णित हो गई वे अभ्रक की राशिकृत परतें। चमकीली रेणु का अति कोमल, प्रवाही आभाजाल । मुझे कटिसात् करता हुआ ।“ओ, मेरी शिवानी का रजो-प्रवाह ! .. मेरे उपस्थ में कम्पायमान पारद का समुद्र । अस्खलित, आत्म-समाहित । ऊपर की ओर अनाहत आरोहित ।। सहसा ही मेरी कटि के चहुँ ओर मंडलायित, प्रवाहित वह अभ्रक की रेणु-राशि । हठात् वह एक परमा सुन्दरी में विग्रहीत हो गई।"ओह, त्रिभुवन सुन्दरी, प्रज्ञापारमिता, ललिता, भुवनेश्वरी भगवती। एक प्रचण्ड प्रकर्षण, उत्कर्षण का हिल्लोल । और लो, वह चरम लावण्या ललिता, मेरे ऊर्ध्वरेता महावीर्य पारद में उत्संगित हो गई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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