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मन के पार जाना होगा
श्रुतिज्ञान और अवधिज्ञान लेकर जन्मा था। सारे शास्त्र मुझ में कमलदल की तरह खुलते रहते थे। और देश-काल में अवधि बांध कर, वहाँ के हर लक्षित व्यक्ति, वस्तु, घटना, स्थिति, सम्बन्ध का मनचाहा ज्ञान पा लेता या। मानो कि किसी तीसरी आंख से बहुआयामी विश्व-घटना को अभीष्ट खण्डों में देख लेता था । यह अलग बात है, कि उसका उपयोग करने की कोई इच्छा मुझ में नहीं थी। जब अनिवार्य होता था कुछ जानना, तो भ्रूमध्य में एक ली-सी उजल उठती थी, और उसमें लक्षित दृश्य झलक उठता था। वर्ना तो जीवन के हर व्यवहार में, अपनी एकाग्र आल्मिक ऊर्जा के साथ ही प्रवृत्त रहता था। अपने सम्वेदन से ही हर कुछ के साथ सम्पृक्त होना चाहता था।
.."फिर जब ज्ञातृखण्ड उद्यान में अनायास दिगम्बर हो गया, तो मेरी महाव्रती प्रतिज्ञा की असि-नोक पर सहसा ही मेरी चेतना मनःपर्ययज्ञान से भास्वर हो उठी। "मनुष्य लोक में विद्यमान तमाम पर्याप्त और व्यक्त मनवाले पंचेन्द्रिय प्राणियों के मनोगत भाव मेरी अन्तश्चेतना में प्रत्यक्ष हो उठे। मैं मन-मनान्तरों का प्रवासी हो गया ।
फिर कटपूतना के हिमपात-उपसर्ग के समापन में मुझे एकाएक लोकावधि शान उपलब्ध हुआ । “मानो किसी कल्पवासी देव के स्वर्गिक विमान की कर्णिका पर खड़ा हूं, और लोक में जहाँ तक चाहूं देख सकता हूं।"
इतनी बड़ी शान-सम्पदा का स्वामी मैं, भले ही सारे तनों और मनों को पर्त-पर्त में देख सकता हूँ, पर उनके साथ तद्रूप नहीं हो सकता । उनकी आल्मा में आत्मा उड़ेल कर भी पाया है, कि मेरी आल्मा उस आल्मा का उत्तर बनने में विफल रही है। बार-बार लगा है, कि मेरी गहराई ने मेरे प्रियपात्र की गहराई में अवगाहन किया है। लेकिन देखता हूँ, कि गहराई अपनी जगह है, और हम दोनों उसके विरोधी किनारों पर छिटके, बिछुड़े खड़े रह गये हैं । जब तक यह बिछुड़न है, तब तक इस ज्ञान का क्या उपयोग ? नहीं, यह काफ़ी नहीं है। मुझे आगे जाना होगा। और मैं अपने भीतर की ओर, जैसे तेजी से अभियान कर गया। बाहर जहाँ चाहूँ, तत्काल पहोंच जाने के लिये। हर स्थिति का साक्षी होने के लिये।
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