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कितना न प्यार मेरे जीवन में आया। माँ और पिता की वैभव और ऊष्मा से लचकती गोदियाँ । शालिनी, काली, चन्दना, चेलना, आम्रपाली, श्रेणिक, “ओह याद आया, अभिन्न लगता मित्र सोमेश्वर, और वह निरी विदेहिनी आत्मा लगती सुकोमला बाला वैनतेयी । और वे आर्यावर्त की चुनिन्दा श्रेष्ठ सुन्दरियाँ, जिन्होंने अपने अंग-अंग से, मेरे अंग-अंग और अणु-अणु को दुलराया । जिनके लावण्य और यौवन ने मुझे चारों ओर से ढाँप कर, मेरे समूचे अस्तित्व को उमड़ उमड़ कर पिया और कृतार्थ किया। कितने सुन्दर ममताविल मुखड़े, कितनी बलायें लेती बाँहें, ओवारने लेते आँचल, मुझे बाँधने को मचलती कितनी परस- कातर भुजाएँ, उफनाती गोदियां । प्यार और सौन्दर्य के कितने समुद्र मेरे चारों ओर उमड़े। पर पर कहाँ है आज वह सारा वैभव ? वे सारे प्यार, सौन्दर्य, कोमलताएँ - मेरे हाथों की अँजुलियों में से आरपार बह जाती लहरों की तरह, काल के जाने किन अज्ञात तटों में जा कर विलीन हो गये ।
.... कितने रूप, आकार, मुखड़े, यौवन से प्रदीप्त चेहरे, कितने आत्मीय परिचित व्यक्तित्व । कितने वैभव, ऊष्माभरे महल, नगर, साम्राज्य, सत्ताएँ । महाकाल के समुद्र पर भव्य तरंग-मालाओं की तरह उठे और विलीन हो गये । कल तक जो दिखाई देता था, वह आज कहीं नहीं है, फिर कभी न दीखेगा । और हम शायद उसे भूल भी जायेंगे ।
तो क्या रूप - नाम - वैविध्य, आकार-प्रकार का यह जगत कोई अस्तित्व नहीं रखता ? क्या इन बदलती रूप-पर्यायों का कोई अर्थ नहीं, अभिप्राय नहीं, कोई सार्थकता नहीं ? किन्तु जब ये आविर्मान होते हैं, अनेक सम्बन्धों में घटित होते हैं, तो इनकी कोई मौलिक सत्ता तो होनी ही चाहिये । इनका प्रकट होना ही अपने आप में, इनका अर्थ और प्रयोजन सूचित करता है । तो निश्चय ही कोई सत् पदार्थ होना चाहिये । कोई सन्दर्भ, कोई परिप्रेक्ष्य, कोई स्रोत होना चाहिये, जहाँ से ये आते हैं, और जिसमें फिर पर्यवसान पा जाते हैं । कोई ऐसा शाश्वत, नित्य आयतन आधार होना चाहिये, जिसमें ये उठते और मिटते हैं । क्या वह मूल द्रव्य, वह पदार्थ, वह सत्ता ध्रुव नहीं, जिसमें से ये सारी पर्यायें सम्भव होती हैं ? अनन्त - सम्भव द्रव्य यदि सत् है, नित्य है, तो ये पर्यायें भी क्या अपने सारे परिवर्तनों के बावजूद, अपने घटित होने के भाव और अर्थ प्रवाह में कोई शाश्वत अभिप्राय नहीं रखतीं ?
प्रतीति हो रही है, कि सत्ता अपने उत्पाद और व्ययात्मक परिणमन में अनित्य होते हुए भी, अपने किसी ध्रुवत्व में नित्य भी है। वह नित्य भी है, अनित्य भी है । नित्यानित्य हो कर इन दोनों से परे, बस, वह केवल है । और उस नितान्त होने में - क्या विशला, वैनतेयी, चन्दना, चेलना, सोमेश्वर- हर सम्भाव्य व्यक्ति और सम्बन्ध, अपनी भाव-सत्ता में, अर्थवत्ता में नित्य सार्थक नहीं है ? निश्चय ही है । पर यदि अन्यथा कुछ है, तो उसका भी मुझे प्रत्यक्ष साक्षात्कार ना होगा।
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