Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 332
________________ 'मैं आगे जाना चाहता हूँ, सागर! ज्ञान से आगे है, महाभाव संवेदन, आत्म-वेदन । ऐसी सहानुभूति, जो परस्पर एक-दूसरे की आत्मानुभूति हो जाये ।' 'धन्य, धन्य, भगवान् !' ३२२ 'मैं ज्ञानातीत एकत्व की महाभाव सत्ता में जाना चाहता हूँ । भिन्न ही नहीं है, अभिन्न भी है । द्वैत ही नहीं, अद्वैत भी है । ... ' 'शाश्वत वर्द्धमान हैं आप, भगवन्, शाश्वत विद्यमान । आप किसी पिछली मर्यादा पर नहीं रुके । शाश्वत प्रगतिशील । निरन्तर नव्य- नूतन । ' 'उत्पला कहीं गई नहीं है, सागर! आओ मेरे साथ, उस तट पर ले चलूंगा, जहाँ उत्पला तुम्हें उसी प्रथम दर्शन के रूप में मिलेगी ! ...' 'भन्ते, भन्ते, भन्ते मैं अनुगामी हुआ ।' 'नहीं, अकेले विचरो । तुम्हें अपने ही रास्ते आना होगा । उस तट पर मिलेंगे ।' ... . और लौटते हुए अपने पीछे मैंने सागरसेन को अत्यन्त शरणहारा देखा । अशरण, एकाकी, स्मशान की अकेली चिता । सागरसेन । 'हाँ, इसी चिता की राह आगे बढ़ना होगा, सागर! हड्डियों के जंगल से गुज़रना होगा । रक्त धमनियों के अन्धकार भेदने होंगे। उस किनारे पर पहुँचने के लिये ।' .... और मैंने देखा, सागरसेन उत्पला की चिता पर चढ़ कर, मेरे पीछे चला आ रहा है । और भी देखना चाहता हूँ। मेरी ज्ञानोर्जा में एक ऐसा हिल्लोलन हुआ, कि जैसे देहपात हो गया हो। और मानो एक और ही देह में उत्तीर्ण हो, महानगरी काशी के राजमार्ग को पार रहा हूँ । एक ओर एक विशाल अट्टालिका के पौर- प्रांगण में दीपों से जगमगाता भव्य रंगमंच शोभित है । वाजित्रों के घोष से सारा नगर धमधमा रहा है । वस्त्र - अलंकारों में सजी अनेक रमणियाँ गीत गा रही हैं । कहीं सुरापान की गोष्ठियों में वारांगनाएँ नाच रही हैं । श्रेष्ठी मदनदत्त के पुत्र का विवाहोत्सव हो रहा है । ... Jain Educationa International ... मार्ग के दूसरी ओर एक छोटे से मकान के आगे, कई स्त्रियां गोल बाँधकर बैठी हैं, और विलाप करती हुई छातियाँ पीट रही हैं । कुछ लोग अर्थी बाँध रहे हैं। माटी के बासन में एक ओर पलीता जल रहा है । एक दीन-दरिद्र वृद्ध दम्पति का एक मात्र पुत्र नौ महीने की ब्याही अछूती सोहागन को छोड़ स्वर्ग सिधार गया है। और वाजित्रों के घोष, तथा नृत्य-संगीत के कलनाद में ये छाती-फाड़ रुदन डूब गये हैं ।'' For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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