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संसरित हुए बिना, जगत में अर्हत् की मुक्त जीवन-चर्या कैसे सम्भव है | ज्ञानशरीरी सिद्धात्मा, ज्ञेय विश्व-प्रपंच के साथ ज्ञान-संवेदनात्मक तदाकारिता न अनुभवे, तो उसकी सार्थकता क्या ? ज्ञेय के बिना ज्ञाता का ज्ञान क्या देखे, क्या जाने ? और अपने को पूर्ण जानने की कसौटी भी, क्या सर्व को पूर्ण जानना ही नहीं है ? सर्व के सन्दर्भ में ही तो अपने को जानने की जिज्ञासा उठती है । सर्व के समक्ष ही तो सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य की अनिवार्य आवश्यकता अनुभव होती है ।
हर चीज़, हर व्यक्ति के साथ अपने सम्यक् सम्बन्ध को जाने बिना, उनके साथ सम्यक् तरीक़े से जिये बिना, उनके साथ अचूक सम्वाद और सम्प्रेषण में आये बिना, अपने आत्म में अन्तिम रूप से कैसे अवस्थित हो सकता हूँ ? क्योंकि ज्ञेय के बिना ज्ञाता की ठीक पहचान सम्भव नहीं : ज्ञाता के बिना ज्ञेय की ठीक पहचान सम्भव नहीं । यह एक ऐसी अविनाभाविता है, जिसे विश्लेषण से नहीं समझा जा सकता, केवल संवेदनात्मक संश्लेषण से जिसका अचूक बोध पाया जा सकता है ।
'लेकिन बन्धक कर्म-रज के इस आप्लावन को रोके बिना, विश्व-लीला में मुक्त रमण सम्भव नहीं । मगर मुक्ति को भी योगी द्रष्टाओं ने सदा रमणी के रूप में ही भावित किया और चाहा है। नर-नारी के रमण-सुख की तल्लीनता के बिना वे उसकी कल्पना नहीं कर सके हैं।
.... हम क्या केवल एक-दूसरे में प्रतिबिम्बित ही हो सकते हैं ? परस्पर में बिम्बात नहीं हो सकते ? इस परम रहस्य का उत्तर शब्दों में नहीं पाया जा सकता । केवल उसमें अवगाहन किया जा सकता है । उसमें अव्याबाध विचरा जा सकता है ।
.... अभी आत्म- प्रसारण द्वारा विश्व में व्याप्त कर्म चक्र के भीतर से गुज़रा। उसे सम्पूर्ण देखा, जाना, सहा, भोगा । और उससे उत्तीर्ण हो कर जहाँ आ खड़ा हूँ, वहाँ अपने को अनायास अपने में अपसारित, संवरित अनुभव कर रहा हूँ।''हठात् अपने आप में निःशेष सिमट कर, निस्पन्द हो गया हूँ ।
देह, प्राण, मन, इन्द्रियों की जुदा-जुदा खिड़कियाँ एक-दूसरे में संक्रान्त, अतिक्रान्त हो रही हैं । देह मानो स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, ध्वनि की तन्मात्राएँ रह गई है । इन्द्रियाँ उनमें यों पिघल गई हैं, जैसे जलजाया मछली जल में विसर्जित हो गई हो । तन्मात्राएँ प्राण में लीन होती जा रही हैं । प्राण मन में विलीयमान अनुभव हो रहा है । और चेतस् मन, चैतन्य की लौ में अकम्प भाव से मुक्त हो गया है । "
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