Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 341
________________ ३३१ रीछों, हस्तियों तक की संज्ञावान तियंच योनियाँ । उनकी विकट हिंसाकुल, क्रुद्ध, कामोजित विकरालता । उसमें सहसा ही एक अन्तर- मुहूर्त मात्र के लिये जागृत अपने अस्तित्व की पहचान । क्षण भर के लिये शमित वैर की शान्त सपाटी । उसमें से हठात् एक गर्भ का विस्फोट : उसके भिन्न, विरोधी दो कगारों पर खड़ा नर-नारी युगल । बीच में फैली मृत्यु की खाई । उसके मोहवाष्पित अंधकार में उनका प्राणहारी संघात, संघर्ष : एक-दूसरे में अन्तहीन संक्रमण । उस अन्ध, ज्ञान-हीन संक्रमण में से उठती, सुडौल - कुडौल, सुरूपकुरूप, अनेक विध रूपाकृतियाँ, मानवाकृतियाँ । ... अहो, यह नामकर्म का आश्रव - लोक है । सृष्टि का कषाय सम्वेदित मनस्तत्व, क्षण-क्षण बदलती भाव -दशाओं में से गुज़रता हुआ। किसी चूड़ान्त भाव- स्थिति में पहुँच कर, यह सहसा तदनुसार सकल या विकल, सुन्दर या असुन्दर देहाकृतियाँ धारण कर रहा है। और ये देहधारी फिर अपनी जीवनलीला के पारस्परिक संघातों में, अपने संकल्प-विकल्पों के अनुसार आयु के काल-पटल में विस्तारित और संकोचित होते हुए जीवन की अवधियों में निर्धारित हो रहे हैं । रक्त, भाव और संस्कार विशेष से कुल, वंश, परिवार में परम्परित हो रहे हैं । व्यक्ति के प्रति व्यक्ति की भाव-प्रक्रिया, प्रतिक्रिया । कुल, वंश, परम्परा के व्यामोह से उत्पन्न अहम् के विस्फोट । रक्ताक्त राग-द्वेषों के संघर्षित जंगल । एक ही देह-काष्ठ के विभिन्न टकराते अंग-प्रत्यंग । विभिन्न काष्ठ- स्थाणुओं की टक्कर, गुत्थमगुत्था । आप अपनी ही भावाग्नि से जल उठा जंगल । निरन्तर दह्यमान स्नायु-मंडल में से फूटती नव-नूतन व्यष्टियाँ, समष्टियाँ, पशु-झुण्ड, मानव - कबीले, जातियाँ, देश, राष्ट्र । व्यष्टियों के संघर्ष । समष्टियों के संघर्ष । राजा श्रेष्ठ, धनी-निर्धन, सत्तावान सत्ताहीन, दीन-दरिद्र, कंगाल, कुलीन - अकुलीन, ऊँच-नीच, शोषक और शोषित । उनके अन्तहीन राग-द्वेषों का दुश्चक्री परिणमन । क्रिया-प्रतिक्रिया, प्रक्रिया की देश-काल में अनिवार्य बढ़ती जा रही श्रृंखला | इतिहास | " ....मोह की दूध-गंध और रक्त-गंध का वाष्पित नीहार-लोक । ऐसी गर्भिल मृदुता और नम्यता, कि उसमें फिसलते ही जाना होता है। लिंग-योनि द्वारों से एक-दूसरे में समाते ही जाना होता है । मोह-रज की इस धारासार स्निग्ध प्रवाहिता के अन्धे गहरावों में, ये कैसे बाधा के मानुषोत्तर पर्वत हैं । अनिर्वार धावित कामनाकुल प्राणी अचानक जाने किस अदृश्य वज्र चट्टान से टकरा जाता है । राह रुँध जाती है । अभिन्न प्राण, एकात्म लगते प्रणयी जनों के बीच अचिन्त्य ग़लतफ़हमी के विन्ध्याचल हहरा उठते हैं । दुर्वार अवरोध की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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