Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 340
________________ . ३३० शत्रुता के कगार पर झूलती हुई । भाव-विह्वलता की लहरों में से उठ आती छुरियां |... ““क्षय, जरा, रोग, मृत्यु के बिलों पर बसा हुआ मनुष्य का सुख - दुखों से आर्द्र, ऊष्म घर । प्राणि मात्र की रक्त वाहिनियों में सुख-सुरक्षा की धुकधुकी । मुद्रित कमल की सुरभित केसर - शैय्या को कोरता हुआ मोह और वेदनीय का कीट । सुख की मर्कत- पिटारी में छुपा दुःख का काला सर्प । नागकेसर की गन्ध-सी यह कसैली वेदना । मोहिनी नाग कन्या, जिसके मोहक वक्ष में उगा है सुख का पीला कमलवन, और जिसके सर्प-पुच्छिल पैरों में से फूट रहा है दुःख का भीषण अजगर । क्षयरोग की शैया पर, बुझती हुई आँखों की मणियाँ, हाड़-पिंजर शरीर, और उसमें रह-रह कर टिमटिमा उठती तृष्णा की लालटेन, मोह के अबूझ अन्धकार में । .... '' तूफ़ानी समुद्र पर दूरातिदूर कहीं मछलियाँ पकड़ते माछीमार की नाव । उसके मस्तूल पर एकाकी टिमटिमाता दीया : बुझने की अनी पर प्रज्वलित उसकी अन्तिम नीली लौ । तट पर खड़ी मछिहारिन की भयाकुल चट्टानी छाती पर सर पछाड़ता, अन्ध समुद्र । सहस्रों मरती मछलियों की मूक चीखों पर सिर धुनता, डूबती नाव का बुझता दीया । मछिहारिन के जूड़े से बिखर पड़े चम्पक फूल । " केवल घहराता काला सागर । और कहीं कुछ नहीं । झोंपड़े में पकते शाकान्नों की सौंधी गन्ध । मदिरा से वासित मदन - शैया । ... सब कहाँ लुप्त हो गया ? घने घुंघराले विपुल केशों की लहरें । उन पर लिपटे साँपों के पाश में अवश मृत्यु का अतलान्त | ओह, यह वेदनीय कर्म का आश्रव-लोक है, जहाँ प्राणी निरन्तर मोह-मूर्च्छा के गहन गव्हरों में, सुख-दुख की करवटें लेता छटपटा रहा है । जहाँ एक ही प्राणी की दायीं करवट सुख है, तो बायीं करवट दुःख । जहाँ प्यारी की सुरम्य साँझिया छाती पर, मौत मोहक कंचुकी बन कर कसी है । .... मोहारण्य के तमसावृत्त तलदेश में, अंगड़ाइयाँ भर कर उठता-सा सान्द्र नील अन्धकार । उसमें अदृश्य परमाणुओं में से उत्सित होते रक्त का अभिसिंचन । उसमें परस - लालसा का कम्पन, संसरण । उसमें किसी नैपथ्य में घूमते चरखे से खिंचा आ रहा माटी का सूत । आकाश के कर्चे पर बुनी जा रही उसकी बारीक जालियाँ । उनमें से उठ रहीं माटी की गड्ड-मड्ड नलिकाओं के विशाल प्रान्तर । उनमें से सरसराते निकल रहे बेशुमार केचुओं के निरे स्पर्शाकुल शरीर । .... झिल्ली - रव में स्पन्दित कीट, लट, पतिंगों के श्वासोच्छवास में प्रतिक्षण जनमते-मरते शरीरों की राशियाँ । कोटि-कुण्डलीकृत वासुकी के पृथ्वीधर मंडल में चक्राकार घूमती-चींटी से लगा कर, पशु चौपायों, व्याघ्रों, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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