Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 338
________________ अन्तर्देश को अन्तरिक्ष-यात्रा पृथिवी के भीतर जैसे-जैसे गहरे उतराता गया हूँ, तो पाया है कि पर्त के भीतर पर्त है। और हर पर्त में से सहस्रों नयी पर्ते खुलती दिखायी पड़ती हैं। और हर पर्त में और भी जाने कितनी अन्तरिमाएँ, अन्तराल, और उनमें से उग आती-सी बेशुमार पर्तों की राशियाँ । इनके भीतर यात्रा संसरण द्वारा ही सम्भव हो रही है। जन्म और मरण, आगमन और गमन, उदय और अवसान की एक अन्तहीन परम्परा में से गुज़रना हो रहा है। उत्पाद, व्यय और ध्रुव की संयुति को समय के अविभाज्य मुहूर्त में एकबारगी ही जीता चला जा रहा हूँ। इस तमिस्रा में जाने कितनी आँखें बन कर चारों ओर खुल गया हूँ। पर एक ऐसे रेशमीन सर्पिल नीहार का कोहरा, उठते-मिटते पर्वतों-सा यहाँ लहराता चला आ रहा है, जाने किस अज्ञात में से, कि उसमें ये आँखें बुदबुदों-सी चमक-चमक कर विसर्जित हो जाती हैं। सब कुछ देख कर भी, ये देख नहीं पाती हैं, सब कुछ जान कर भी ये ठगी-सी रह जाती हैं, और खो जाती हैं। असंख्य आँखें भी इस भीतरिमा को भेद पाने में विफल हो, जाने किसी तत्व में विशीर्ण हो जाती हैं। अक्ष से नहीं, एकाग्र अविचल आत्म के सीधे सम्वेदन से ही इस अन्तरिमा के जगत का अवबोधन सम्भव है । एक चक्षुहीन, लक्ष्यहीन अवगाहन की अनुभूति भर रह गया हूँ। एक अभेद्य तमिस्रा का क्षितिजहीन मण्डल चक्राकार मेरे चारों ओर घूम रहा है। और वह अलोकाकाश के सत्ताहीन शून्य में प्रसारित होता चला जा रहा है। एक अनिर्वच सूक्ष्म रज के आश्रवण को अपने ऊपर आक्रमण करते देख रहा हूँ। राशिकृत पटलों में यह रज का प्रवाह किसी महार्णव की तरह मेरे भीतर-बाहर तरंगित है। कहना कठिन है कि निरी माटी है, या निरा जल है। क्योंकि इसमें शुष्क माटी का बिखराव और सरसराहट भी है, और जल-लहरों की-सी मृदुता और निरन्तरता भी है। इसमें माटी का लोच और नम्यता भी है, पानी की अजस्र प्रवाहिता भी है, वायु की मेघवर्णी शीतलता भी है, और इसकी सन्धियों में सिन्दूरी ज्वालाओं का दाहक ताप भी है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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