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मैदान हो रहते थे, जहाँ दिगन्तों तक किसी के होने का कोई निशान नहीं, कोई अहसास नहीं । तब कितना अकेला उदास हो कर अपने उस स्फटिक कक्ष के नैर्जन्य में घंटों - पहरों बन्द हो रहता था । प्राण काँद- काँद उठते थे । रो कर भी जैसे उस वेदना से मुक्ति नहीं। क्यों कि कौन, किसके लिये रोये, क्यों रोये ? आखिर कोई एक, अविचल, अक्षुण्ण कुछ हो तब न ? विरह भी किसका, जब किसी के होने का कोई निश्चय नहीं, प्रतीति नहीं ।
...फिर भी जीवन का खेल खेलने को विवश तो था ही । महलों की सुखशैया से उच्चाटित हो कर वीरानों, पर्वतों, जंगलों, नदियों के प्रवाहों पर क्या खोजता फिरता था ? शायद यही कि क्या विविध रूप - आकारों के इस नाना रंगी जगत् में कोई ऐसी आकृति, ऐसा चेहरा, ऐसा व्यक्तित्व है, जिसे अन्तिम रूप से अपना कहा जा सके ?
अनोमा-तट के शालवन की वह बालिका शालिनी, उस क्षण कितनी सत्य लगी थी ? और फिर विराट् विन्ध्यारण्य में, मानो शाश्वत विन्ध्याचल में से ही आविर्भूत हो गई, वह प्रकृत बाला काली मिली थी । पर्वत की चट्टान के भीतर से अपना सुकठिन वक्षालिंगन उसने मुझे अनुभव कराया। पर क्या उसका वह मिलन किसी नित्यत्व की अनुभूति करा सका ?
.... उस दिन अचानक चन्दना कैसी विकल साध लेकर मुझ से मिलने नवम् खण्ड के कक्ष में आई थी। उसे सम्मुख पा कर कैसे शाश्वत् सौन्दर्य के साक्षात्कार की अनुभूति हुई थी। लेकिन वह चन्दना क्या स्वयम् अपनी भी रह सकी, अपने ही साथ अपने घर ठहर सकी ? भटकती ही चली गई वह, उस वर्द्धमान की खोज में, जो स्वयम् ही अपने आप से नाता तोड़, जाने किस 'आत्म' की खोज में अभिनिष्क्रमण कर गया था, जिसे वह जान कर भी जानता नहीं था। जिस वर्द्धमान को स्वयम् ही अनेक विनाशों और मौतों से जूझते चले जाना पड़ा, अपने को रखने और पाने के लिये ।
... और कहाँ-कहाँ न भटकी वह चन्दना ? कैसे-कैसे कष्ट उसने झेले । क्या मैं उसका साथ दे सका ? क्या वह मेरा पीछा कर मुझे पकड़ सकी ? और फिर कौशाम्बी की उस हवेली के तलघर की देहरी पर, बेड़ियों जकड़े पैरोंवाली उस बन्दिनी चन्दना से साक्षात् हुआ था । उसका वह बाला - सौन्दर्यं जाने कहाँ खो चुका था । उसका वह आम्रपाली के केशकलाप को भी लज्जित कर देनेवाला केश-वैभव कहाँ चला गया था । मुण्डिता, दासी, बन्दिनी, विवश, लाचार, भूखीप्यासी उस अतिथि की प्रतीक्षा में आकुल, जो आया भी, तो बेड़ियाँ भले ही
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टूटी हों, स्वर्ग से मणि - मुक्ता भले ही बरसे हों, पर वह अतिथि क्या रुक सका ? क्या वह चन्दना को और भी बड़े और चरम विरह का आघात देकर, उससे पीठ न फेर गया ? क्या उसकी पुकार को अनुत्तरित छोड़, वह अपनी राह पर एकाकी पलायन न कर गया ?
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