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का वर्णन करते न थकती थी। और आख़िर हर पिटारी का तिलस्म औचक ही टूट जाता था, और बुढ़िया हाय-हाय कर विलाप करने लगती थी। मुझे उसके साथ कैसी हमदर्दी और असह्य सहवेदना अनुभव होती थी ! ...
आज उसी महा करण्डक की कथा, मेरे लिये सत्यान्वेषण का एक माध्यम बन गयी है। और इस जगत के मोहक इन्द्रजाल एक-एक कर बुढ़िया के उन तिलस्मों की तरह टूट रहे हैं। इस हद तक, कि अपने इस द्रष्टा को ठहराने के लिये हर उपलब्ध पृथ्वी छोटी पड़ रही है। ठहराव का हर पटल हाथ से निकला जा रहा है। कहां, कितनी दूर है वह ध्रुव, जिस पर अविचल रूप से टिका जा सके, अवस्थित हुआ जा सके। कहीं कोई ध्रुव है भी, या नहीं ? ।
और अतिक्रमण की इस प्रक्रिया के दौरान, सहसा ही जैसे परिप्रेक्षण की एक नयी दृष्टि किसी अदृष्ठ में से उतर आई कुंजी की तरह मेरे सामने तैर आई है।
स्पष्ट प्रतिबोध पाया कि अब तक मैं किसी आत्मा को पूर्व-स्थापित कर, उसी के चश्मे से अस्तित्व को देखता था, और उसकी एक मूलगत व्याख्या करता. चला जाता था। तत्व से आरम्भ करके अस्तित्व तक जाता था। अपने ही आत्म में अवस्थित हो कर, अस्तित्व की सारी विषमता, जटिलता और वासदी को व्यर्थ कर देता था। तत्व में अस्तित्व को निर्वापित कर, मानो उससे पलायन कर जाता था। शायद यही कारण हो कि अस्तित्व के विराट् अनेकत्व और वैविध्य के साथ अचानक, पराकाष्ठा पर पहुंच कर, मेरा संवाद भंग हो गया है। जीवन्त अस्तित्व को, उसके दुःखों, संघर्षों, सन्त्रासों, विसम्वादों सहित अणु-प्रति-अणु, कोण-प्रति-कोण, जिये-भोगे अवगाहे-जाने बिना, उसके साथ अनैकान्तिक तत्व को कैसे समग्र आश्लेषित किया जा सकता है ?
इस सीमाहीन अस्तित्व को, इसकी नानामुखी विराट् त्रासदी के साथ, समूचा साक्षात् करना होगा। इसे तत्व में विसर्जित किये बिना, इसके बहुत्व और वैषम्य को ज्यों का त्यों, जैसा वस्तुतः सामने है, वैसा देखना, भोगना और जानना होगा। इसकी भयावहता और त्रासदी का बेशर्त, निर्विकल्प मुक़ाबिला करना होगा। इसे अपनी धारणाओं से व्याख्यायित नहीं करना होगा, निर्विचार और निःसंग संचेतना से इसके साथ टकराना होगा। नहीं, न अस्तित्व का कोई वाद बनाना होगा; न तत्व का। निर्विवाद और निर्विकल्प वस्तु-स्थिति जो, जैसी सामने आ रही है, जैसी वह उपलब्ध है, उसी में अपने को घटित देखना और समझना होगा। अपने को पूरा जानने और पाने के लिये, सर्व के साथ सम्पूर्ण उलझाव अनिवार्य है।
...और इस प्रकाण्ड बिल्लौरी करण्डक का रंगीन तिलस्मी पर्दा, विपल मात्र में चरचरा कर जीर्ण वस्त्र की तरह फट गया। और देख रहा हूँ, कि यहाँ
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