Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 323
________________ ३१३ जाऊँ, वे मैं हो जायें ?'-ये सारे विकल्प जहाँ समाप्त हो जायें। बस, केवल विशुद्ध स्व-भाव में मिल वह समुद्रानुभूति रह जाये, जिसमें तरंग का समुद्रत्व और समुद्र का तरंगत्व स्वतः ही निर्णीत होता रहे। जहाँ स्व-पर, द्वैत-अद्वैत, नित्य-अनित्य से परे, स्वायत्त सत्ता में सारे अस्तित्व आप ही प्रबुद्ध, परिभाषित, सहज सम्बन्धित होते रहें। जहाँ आत्म-सम्वेदन और आत्म-ज्ञान, पर-संवेदन और पर-ज्ञान भी, उस एकमेव ज्ञानानुभूति में लौ-लीन हो जाये, जहाँ अलग से जानना और अनुभव करना तक अनावश्यक हो जाये। ऐसा लग रहा है, कि एक बार सत्ता की उस शुद्ध पारिणामिक स्थिति में आत्मोत्तीर्ण हुए बिना, आत्मा और पदार्थ, जीवन और जगत के साथ वह सम्प्रेषण और सम्वाद सम्भव नहीं, जिसे पाये बिना मझे विराम नहीं। जिसके बिना मानो मैं एक सत्ताहीन शून्य के तट पर, सदा के लिये जैसे निर्वासित हो गया हूँ। जिसके बिना अब क्षण भर भी सत्ता में मेरा ठहराव सम्भव नहीं। ___ क्या यह एकाकीपन ही मेरी और सब की अन्तिम नियति है ? या कोई ऐसा एकत्व भी कहीं सम्भव है, जहाँ अलगाव नहीं, बिछोह नहीं ? यहां तो ज्ञान तक एक पारदर्श स्फटिक की महीन किन्तु अभेद्य दीवार बन कर, हम सबको असंख्य कोणों, आयामों, आकारों में खण्डित, विभाजित कर छोड़ता है। क्या कहीं कोई ऐसा सामरस्य सम्भव है, एक ऐसा अगाध और अकथ मिलन-सुख, मैथुन-सुख, जिसमें प्रतिक्षण द्वैत अद्वैत और अद्वैत द्वैत होता रहता है ? जिसमें एक में अनेक और अनेक में एक का लीला-खेल अविनाभावी भाव से चलता रहता है । जहाँ एक ही अन्तर-मुहूर्त में पूर्णज्ञान ही पूर्ण सम्वेदन, और पूर्ण सम्वेदन ही पूर्ण ज्ञान होता रहता है। "असीम परिणमन के समुद्र पर एक अकम्प लो, जिसमें सारा समुद्र अपनी अनन्त वासना के साथ निरन्तर एकाग्र आलोड़ित है। देखता हूँ, कि एक अनुप्रेक्षण मेरे भीतर चल रहा है। लगता है कि यह संसार मानो एक विशाल करण्डक की तरह मेरे सामने उपस्थित है। इसकी परस्पर बुनी-गुंथी तीलियां अपने ही आपको धोखा दे गई हैं। और मेरी नासाग्र दृष्टि के भेदन से वे छिन्न-भिन्न हो कर इस करण्डक के सारे गोपित उलझावों और रहस्यों का पर्दा फ़ाश कर देना चाहती हैं। और यह संसार मेरे सम्मुख यों खुल रहा है, मानो हर पिटारी के भीतर से एक और बन्द पिटारी निकल कर सामने आ जाती है। पिटारी के भीतर पिटारी, पिटारी के भीतर पिटारी, एक और एक और एक और पिटारी। बचपन में मां की कही एक कहानी में, ऐसी ही एक आदि वृद्ध बुढ़िया की रहस्यमयी महा पिटारी की बात आती थी। हर दिन वह बुढ़िया पिटारी में से एक और पिटारी निकाल कर उसके तिलस्मों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400