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याद आ रहा है, षड्गमानि ग्राम के उपान्त भाग में उस दिन कायोत्सर्ग में प्रवेश करते ही, कैसी भयावह नियति की पदचाप समस्त आकाश-नाड़ी में ध्वनित सुनाई पड़ी थी। और फिर उस गोपाल ने जब शल्य द्वारा मेरा कर्णवेध किया, तो लगा कि मेरी चेतना में जो बहुत गहरे कहीं एक दरार छुपी थी, वह नग्न होकर सामने आ गई। उस महावेदना में, एकाएक मैं अवश चीत्कार उठा अपने बावजूद 'माँ' ! संसार के प्रत्येक प्राणि और वस्तु का अनाथत्व उस में अनुगुंजित हो उठा। वह पुकार मानो कहीं अन्तिम शरण पा जाने के लिये थी। पर क्या वह शरण अपने से अन्य में और अन्यत्र कहीं सम्भव है ? और वह चीख जैसे अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डों को विदीर्ण कर गई। समस्त विश्वात्मा के हृदय में जैसे दरार पड़ गई। या कि वह दरार चिरकाल से वहाँ थी, और उस आघात से वह खुल कर सामने आ गई? ___"बस, उसी क्षण मैं अन्तिम रूप से अकेला पड़ गया था। मानो अपने ही से बिछुड़ गया था। अपने ही ऊपर, कैसी दया, करुणा आ गई थी। मानो अपने ही लिये पहली बार रो उठा, और कहीं किसी माँ में शरण खोजी। पुकार उठा : 'ओ माँ, तुम कहाँ हो ?' वह रोना नितान्त अपने ही लिये हो कर भी क्या सब के लिये नहीं था? क्या त्रिशला की विरह-वेदना उसमें नहीं थी? क्या चन्दना की भटकने, खोज, संकट-संघर्ष, उच्चाटन, उसकी अन्तहीन पुकार का प्रतिकार उसमें नहीं था?
"ओह, लग उठा था कि हाय, कितना अनिश्चित, अरक्षित और घात्य है यहाँ हमारा अस्तित्व ! रोग, शोक, जरा, वियोग, अकस्मात्, मृत्यु के चंगुल में ही हम प्रतिपल जीते हैं। क्या कोई ऐसा जीवन सम्भव नहीं, जिसके हम स्वामी हों, जिसमें क्षय, मुत्यु और धियोग मात्र हमारे अधीन अनिवार्य सज्ञान अवस्थाएँ हों? जिनमें से हम यों गुजर जायें, जैसे ऊपर की मंज़िल में चढ़ने के लिये, हमें निचली मंजिल को पीछे छोड़ देना होता है।
सिद्धार्थ वणिक और खरक वैद्य द्वारा शल्य-मुक्ति पा कर जब चला, तो कितना अकेला पाया था अपने को मगध की राह पर। बिछोह की उस अनुभूति को, किसी भी मानवीय वियोग के परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा जा सकता। 'माँ' की अवश पुकार जब 'आत्मा ' में प्रतिध्वनित हुई, तब भी क्या खोज उस एकमेव माँ और रमणी की ही नहीं थी, जिसकी गोद में ही परम विश्राम और मुक्ति सम्भव है?
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"और मैं चेलना के देश चला आया। और तब क्या नहीं दिया मुझे चेलना ने ? संसार में उससे बड़ा सुख और क्या हो सकता है ? प्रीति और आत्मार्पण की उस यज्ञशिखा से अधिक सुन्दर और कौन चेहरा हो सकता है ? आत्मा की चरम विरह-व्यथा से विदग्ध वह दर्दीली मुख-मुद्रा ! पर हाय, फिर भी क्या चेलना मुझ में सम्पूर्ण आ सकी, या मैं उसमें सम्पूर्ण जा सका?
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