________________
१३८
और प्राणि-जगत के पिण्ड-धारण और परिचालना तक की सारी ही प्रत्रियाओं में से जैसे स्वयम् ही यात्रित होता चला जा रहा हूँ। · · 'अपने ध्रौव्य की धुरी पर अविचल आरूढ़, उत्पाद और व्यय की परिशुद्ध प्रत्रिया को अखण्ड काल-परमाणु में जी रहा हूँ . . ।
· · एक विशाल सार्थ की छावनी मेरे चारों ओर फैली दिखाई पड़ रही है। कर्म-कोलाहल का अन्त नहीं। · · 'कोई थका-हारा भूखा पथिक धर्म-संकट में पड़ा है । उसे भात पकाने हैं, पर चल्हा बनाने के लिये उसे पत्थर कहीं नहीं मिल रहे हैं । चारों ओर पत्थर खोजते वह थक गया, लेकिन एक पत्थर भी कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा । · · ·उसके क्षोभ और क्रोध का पार नहीं । क्या प्रकृति में से पत्थर ही लुप्त हो गये ?
..बड़ी देर से वह मेरे आसपास चक्कर काट रहा है । · · ·आखिर उसकी दुविधा समाप्त हो गई। इस नग्न साधु के पर्वत-से स्थिर चरणों से अधिक उत्तम चूल्हा और कहां मिलेगा ! बना-बनाया चूल्हा ही तो अग्नि-देवता ने स्वयम् उसके आगे प्रस्तुत कर दिया है । सो ध्यानस्थ श्रमण के जुड़े चरणों के बीच अग्नि प्रज्जवलित कर के उसने अपने भात की पतीली उस पर चढ़ा दी। उन पैरों के जीवन्त पत्थरों पर पका भात खा कर, जाने कितने दिनों का भूखा पथिक मानो किसी दिव्य भोजन का आस्वाद पा कर हर्ष विभोर हो गया । ___ 'ऐसे स्वादिष्ट, सुगन्धित भात तो इससे पूर्व जीवन में मैंने कभी चखे नहीं।' -मन ही मन वह सोचता रहा । दाह मुझे जो भी अनुभव हुआ हो, लेकिन एक नयी उपलब्धि हो गई है। हाड़-मांस के चरण भस्म हो गये, पर उनमें से यह कैसे तप्त हिरण्य से नये चरण प्रकट हो गये हैं। · · 'पथिक, तुम्हारे प्रति मेरी कृतज्ञता की सीमा नहीं !
· · सामने से आ रहे व्याध ने देखा कि इस जंगल में यह पुरुषाकार वृक्ष काढूठ कहाँ से आ गया है । बहुतेरी रंग-बिरंगी जंगली चिड़ियाएँ उसने नगर में बेचने के लिये पकड़ी थीं, और उनके कई पिंजड़े ढोते वह थक गया था। उसे डर था कि पिंजड़े नीचे रखने पर, आकाश न दिखाई देने से, नयी पकड़ी चिड़ियाएँ व्याकुलता से तीलियों पर पंख मार कर प्राण दे देंगी । क्यों न इस ढूंठ पर सारे पिंजड़े लटका दूं। इसके आसपास तो आकाश ही आकाश है । और गद्गद् हो कर व्याध ने वे सारे पिंजड़े मेरे दोनों कानों पर, गले में, कंधों पर, भुजाओं पर बाँध कर लटका दिये। पंछियों को कोई नया आकाश चहुँ ओर फैला दिखाई पड़ा। उसमें उड़ने की छटपटाहट उन्हें इतनी असह्य हो गई, कि अपनी चोंचों के आघातों से पिंजड़े पोड़ कर, वे इस नूतन आकाश में इतने ऊँचे उड़ते चले गये कि व्याध की आँखें भी
Jain Educationa international
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org