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की त्यों महेसूस कर रही हूँ। सोचती हूँ, इन्द्रनील मणि के वातायन-रेलिंग पर जो ठहर नहीं पाती थी, उसे एक दिन चरम अन्धकार की खन्दक में कूदना ही था। वहाँ से यहाँ तक, एक ही छलांग में तो चली आयी हूँ . . .
वृद्धा दासी मनसा दूर से ही मुझ पर बहुत ममता रखती है। वह एक दिन आ कर तलघर के बंद द्वार की शलाखों पर बुदबुदा गई थी :
'हाय रे दैया, ऐसी सुन्दर कोमल लड़की कैसी विपद में आ पड़ी है ?सेठानी तो इसे बन्द कर उसी दिन पीहर चली गयी थी। सो अब तक लौटने के लक्षण नहीं। श्रेष्ठि को उस कर्कशा ने जाने कहाँ पठा दिया है, कौन जाने ? कितने दिनों से उपासी पड़ी है बिटिया इस काल-कोठरी में। · · 'चोरी से भोजन ला कर, पुकारती हूँ, तो उत्तर तक नहीं देती। उस अंधरे कोने में लाश बनी पड़ी है !'
उत्तर तो नहीं दिया, पर मेरी निर्जीव-सी हो पड़ी सारी देह मनसा मौसी के लिये व्याकुल-विह्वल हो उठी थी। आँसू उमड़ आये थे। मन ही मन फूटा था : ___. . 'और मौसी, तुम स्वयम् ? तुम्हारा अपना भाग्य ? तुम भी तो चिर जन्म की दासी हो? अपने दुःख-दुर्भाग्य को भूल कर मेरे कप्टों पर आँसू बहा रही हो? कितनी बड़ी हो तुम मौसी ? आर्यावर्त की कौन महारानी तुमसे बड़ी हो सकती है?'
एक सवेरे अचानक तन्द्रालोक की परतों को भेद कर सुनायी पड़ा : 'बेटी चन्दन, मैं आ गया, तुम्हारा बापू ! · · 'तुम्हारी यह दशा · · ·?'
सींखचों पर सर ढाल कर, बापू फफक-फफक कर रो रहे थे। · · 'सहा न गया। उठ कर आयी। आँख उठा कर मेरे उस रूप को देखना उनके वश का न था।
'नहीं बापू, ऐसे नहीं करते। · · देखो' : 'मेरी ओर · · 'मैं हूँ न! कहीं चली थोड़े ही गयी हूँ ?' · · 'बापू ठहर न सके । 'रुको बेटा, अभी आया · · ।' कह कर वे उलटे पैरों लौट पड़े। ____ जाने कब पाया कि द्वार खुल गया है। घर की भेदिया मनसा दासी ने कहीं से चाभी टोह निकाली होगी। · · रसोईघर में कहीं कुछ न मिला शायद। भंडार पर मज़बूत ताले पड़े थे। बापू एक क्षण भी अब मुझे निरन्न छोड़ कर वहाँ से हटना नहीं चाहते थे। बहुत टटोल कर जो मिला वही तत्काल ले आये। एक सूप में कुलमाष धान्य के कुछ दाने। एक मिट्टी के
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