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तुम एक बार इनके साम्राजी महाद्वार पर अपने श्रीचरणों के कमल आँक देते, तो इनकी आत्मा की जनम-जनम की फाँसियाँ, एक ही झटके में कट जातीं। तुम्हारे एक दृष्टिपात मात्र से इनकी सारी ग्रंथियाँ मुलझ जातीं। तुम्हारे प्यार की एक चितवन मात्र से ये चिन्मय हो जाते।
· · · फिर यह क्या हुआ, वर्द्धमान, कि इनको इतनी निर्ममता से नज़रन्दाज करके तुमने इनके हृदय को अन्तिम ग्रंथि से कस दिया? इनकी पीड़ा की कल्पना मात्र से मैं सहम उठती हूँ, और रो-रो पड़ती हूँ। पर तुम हो कि मेरो छाती-तोड़ रुलाइयों के प्रति भी निरे पाषाण हो कर रह गये हो । __जब नहीं रहा गया है, तो भरी दोपहरियों में, पंच-शैल के अरण्यों में तुम्हारी खोज में बावली-सी भटकती फिरी हूँ। और आखिर तुम्हें अचानक सामने पा कर, तुम्हारे चरणों में पछाड़ खा कर पड़ गई हूँ। तुम्हारे पदनख पर अपनी लिलार का तिलक और माँग का सिंदूर रगड़-रगड़ कर बिलखती रही हूँ। और इस तरह अपने सौभाग्य की भीख तुमसे मांगी है। पर हार कर पाया है, कि उस अंगूठे की अविचल कठोरता के आगे मन्दराचल भी पानी भर गया है। ___घंटों, पहरों, तुम्हारे चरणों के निकट बैठी बिसूरती रही हूँ, आँसू सारती रही हूँ। तब मुझे देख कर विपुलाचल का शिखर काँप उठा, तमाम जड़ जंगम कातर हो आये, पर तुम्हारी समाधि नहीं टूट सकी। पीड़ा का पार नहीं है, पर ऐसा लगता है, कि जिसे अपना कर तुम अपने समान बनाना चाहते हो, उसी को ऐसी दारुण परीक्षा तुम लेते हो। तुम्हारी अविचलता की कसौटी पर जो ठहर सके, वही तो निश्चल होने की सामर्थ्य प्राप्त कर सकता है। जान पड़ता है, भगवान अपने प्रियतम जन को इसी तरह प्यार करते हैं।
एक आधी रात अचानक मेरे कक्ष के किंवाड़ पर दस्तक हुई। पल मात्र में पहचान गई, कौन आया है। किंवाड़ खोल कर उलटे पैरों लौट आई। अचानक जैसे बिजली कड़की :
'वर्द्ध मान क्या चाहता है ?' 'जो तुम चाहते हो, देवता।' 'साम्राज्य ?' 'धरती का नहीं, धर्म का।' 'मेरे ऊपर हो कर ?' 'धर्म तो सबसे ऊपर है ही, स्वामी !' 'मेरी धरती पर?'
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