________________
२६८
इसी से दुर्दान्त तापस के रूप में जब तुम पहली बार नालन्दपाड़ा के उपान्त में दिखायी पड़े, तो खबर मिलते ही अपनी मनोमणि चेलना के साथ तुम्हारे श्रीचरणों में आ उपस्थित हुआ। पर तुम्हारी निश्चल नासाग्र . दृष्टि किंचित् भी विचलित न हुई। तुम हमारी ओर रंच भी उन्मुख न हुए। हमारी उपस्थिति की भी मानो तुमने अवहेलना कर दी। इससे अधिक श्रेणिक का अपमान और मर्मछेदन, कोई जीवित सत्ता आज तक न कर सकी थी। · · ·जितना ही अधिक आहत हुआ, उतना ही अधिक तुम्हारे पास आने को फिर-फिर विवश हुआ।
नालन्द की तन्तुवायशाला में फिर हम तुम्हारे दर्शनार्थ आये। अजीब थी तुम्हारी वह ध्यान-भंगिमा। सैकड़ों कों की खड़खड़ाहट में मानो तुम संचरित थे। बुनकरों के सहस्रों हाथों में दौड़ती शटलों में तुम खेल रहे थे। निर्जीव यंत्रों के उस कोलाहलपूर्ण कर्म-चक्र में तुम लापरवाह बालक की तरह अकारण ही क्रीड़ा कर रहे थे। और अपने उस निरुद्देश्य लीला-खेल में हमारे प्यार और पीर से उमड़े हृदयों को तुमने सहज हो नज़रन्दाज़ कर दिया। उसके बाद भी कितनी न बार वैभार और गृध्रकूट की हिंस्र प्राणि संकुल भयावह अटवियों में, अकेला भी तुम्हारे कायोत्सर्गलीन चरणों में पंटों आकर बैठा रहा । लेकिन तुम्हारी एक नज़र तक पाने में वह मगधनाथ मजबूर रहा, जिसका नज़राना हो जाने को दुनिया की हर विभूति तरसती है ।
मगधेश्वर के साम्राजी श्रमणागारों के आतिथ्य को तुमने अपनी एक मर्मीली मुस्कान से उड़ा दिया। पर राजगही के परिसरवर्ती जाने कितने ही ग्रामों की कन्मशालाओं का अनामंत्रित मेहमान होना तुमने अधिक पसन्द किया। लोहकार, वद्धिक, शिनाकार, जुलाहे, चर्मकार, और चंडकर्मो चाण्डाल तक तुम्हारे मनभावन मेजबान होने का सौभाग्य पा सके. लेकिन मगध के साम्राजी सिंहद्वार पर झाँकना तक तुम्हें मंजूर न हो सका। चेलना, नन्दश्री, कोसला, क्षेमा जैसी केसर-कोमला महारानियाँ कई-कई दिन व्रती और उपासी रह कर, अनेक तपस्याएँ धारण कर, हमारे राजद्वारों में महाश्रमण वर्द्धमान का द्वारापेक्षण करती थक गई। लेकिन निगंठ-नाथपुत्र के हृदय को हमारी कोई आरति, पुकार, पीर, प्रार्थना पिवला न सकी, छू तक न सकी। फिर भी चेलना, तुम्हारी हर अवहेलना से अधिकाधिक मर्माहत हो कर, अधिकाधिक तुम्हारे निकट मिटती ही चली गई। अन्य महारानियां भी अपने ही अन्तराय-कर्म को कोसती हुईं, तुम्हारी अनन्त महिमा में अधिक धिक अभिभूत होती चली गई।
· · · लेकिन मानो श्रेणिक को तुमने विलित होने से भी वंचित कर दिया। मेरे विजित अहम् के मूछित नागचूड़ को तुमने फिर अपनी ठोकर
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org