Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 303
________________ २९३ ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और मोहनीय कर्मों का कैसा अभेद्य वीरान अन्तराल हमारे बीच महाकाल सर्प की तरह अनिर्वार हो कर पड़ा है। ऋजुबालिका के सतत प्रवाही जल-लोकों में धंस कर तुम्हारे सुप्त हृदयों में सहसा एक जोत की तरह जाग उठना चाहता हूँ। लोक की एक भी आत्मा मेरे सम्वाद और सम्प्रेषण से वाहर रह जाये, तो मेरे प्यार की क्या सार्थकता? इतनी सारी ग़लतफहमियाँ हमारे बीच, इतने सारे विकल्प ? इन सारे कर्मारण्यों का भेदन किये बिना, महावीर को विराम नहीं ।। - अपने जाने तो, इन्द्रियों और मन के सीमित गवाक्षों से परे, अपनी समग्र आत्मा के साथ, आत्मा में, आत्मा द्वारा ही सर्व के संग सम्पृक्त होने की अदम्ब महावासना में ही सतत जीता हूँ। फिर भी देख रहा हूँ, कि मेरा दर्शन-ज्ञान, मेरा दक-बोध, अभी इन्द्रियों के बाधित द्वारों को नहीं छेक सका है। अभी समग्र से समग्र का आलिंगन सम्भव नहीं हो रहा है। अभी गहराव से गहराव का गुम्फन और अविकल आश्लेष शक्य नहीं हो पा रहा है। उसी पूर्ण परिरम्भण में सुखलीन और आलोकित होने के लिये, ऋजुबालिका की लहरों के विपुल जल-पटलों में दुर्दाम तैरता हुआ, अपनी आत्म-रमणी के नीवि-बन्धन का छोर खोज रहा हूँ। कि जिसे एक झटके के साथ खींचते ही, सारी ग्रन्थियाँ और आवरण खुल पड़ेंगे, और वह श्रीकमल सम्मुख होगा, जिसकी कर्णिका में तुम बाँहें पसार कर अनावरण खड़ी हो, चेलना। और तुम्हारा सम्राट तुम्हारे उरोज-गव्हर के भीतर कस कर चिपटा बैठा है। कितना भयभीत, विकल, ईष्याकुल, शरणाकुल, आशंकित, पराजित, आत्म-हारा है, तुम्हारा यह प्रियतम । मोहिनी के इस रजस और तमस-राज्य को भेदे बिना, तुम्हारी कणिका की उस वेदी पर कैसे पहुँच सकता हूँ, जहाँ तुम समग्र खड़ी हो । मोह के घने भँवराले चिकुरजाल से आवेष्टित, श्रेणिक से आवेष्टित, साम्राज्य से आवेष्टित, धरती से आवेष्टित-फिर भी जातरूप दिगम्बरी, हेमांगिनी चेलना। लो मैं आया · · · मैं आया, निविड़ आन्तरिक अडाबीड़ , नीरन्ध्र जलान्धकारों का यात्री महावीर । · · ‘राजगृही में, चेलना के एकस्तम्भ प्रासाद की छत के केलि-उद्यान में सहसा ही अपने को आविर्भत देख रहा हूँ। केतकी के एक कटीले दल पर गाल ढाले चेलना मानो मुग्ध-मछित सर्पिणी-सी अधलेटी है। मालती का वितान ही जैसे उसके लिये आकाश पर खुली एक शैया हो गया है।' 'रो रही हो, चेला?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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