Book Title: Anuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Author(s): Virendrakumar Jain
Publisher: Veer Nirvan Granth Prakashan Samiti

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Page 301
________________ २९१ चेलना, तुम्हारी मर्म-व्यथा मेरी आत्मा में सतत अनुकम्पित है । बचपन से ही अपने को देखा है, तो पाया है कि कभी- कोई संकल्प या इच्छा मुझ में नहीं रही। कोई निर्णय या चुनाव भी अपना नहीं रहा । जो, जैसा हूँ, बस हूँ। लेकिन अक्रिय हैं, ऐसा तो कभी नहीं लगा। एक अन्तहीन स्वयम्भू क्रिया को सतत अपने भीतर चलते देख रहा हूँ। अपने आत्म का एक सहज अनवरत परिणमन । ____ आज उस परिणमन को उसकी सूक्ष्मतम आकृतियों और लयों में अधिकतम तद्रूप भाव से देख रहा हूँ। कभी-कभी अन्तर-दर्शन का एक अद्भुत वातायन खुल उठता है। उसमें से वर्द्धमान के अस्थि-ढाँचे को, उसके नाडीमंडल को, उसकी रक्तवाहिनियों को, उसके शरीर के एक-एक अवयव और उनके सारे क्रिया-कलापों को, उसकी साँसों के क्रम तक को, एक सामने फैले चित्र या शिल्प की तरह तादृष्ट देख देख लेता हूँ।... तब लगता है, करने को कुछ है ही नहीं। यह दर्शन और ज्ञान स्वयम् ही अवकाश में सर्वत्र व्याप कर एक निश्चित क्रिया हो जाता है। और तब आपोआप जाने कहाँ-कहाँ, जाने क्या-क्या अपूर्व नया उत्पन्न और घटित होते देखता हूँ । वस्तु-जगत के गुह्य अन्तरिक्षों में भिद कर यह ज्ञानोर्जा रूपान्तर के एक रसायन की तरह प्लवित होती दिखाई पड़ती है। कुछ करता नहीं, कुछ सोचता नहीं, कुछ चाहता नहीं या अचाहता नहीं। बस एक ध्रुव 'मैं' में अपने को निरन्तर नित-नव्य होते देखता रहता हूँ। • लक्षित हुआ है बार-बार, कि मेरे पैर मगध की भूमि पर खिंचते चले आये हैं। क्या प्रयोजन है इसमें सत्ता का, मुझे नहीं मालूम । यह न मानने का कोई कारण नहीं, कि चेलना और श्रेणिक ने ही मेरे बावजूद बारम्बार मुझे पंच-शैल की कानन भूमि में खींचा है। क्या यह अपने आप में पर्याप्त नहीं ? यों मगध की ऊर्जस्वला भूमि ने, उसके पर्वत-कूटों और कान्तारों ने, उसके सुरम्य प्राकृत उद्यानों और छायावनों ने, उसके कम्मकरों और चांडालों ने, उसके जल-राज्य, वनस्पति-राज्य, उसके कीट-पतंग और हर जीव, और कण कण, तृण-तृण ने भी मुझे कम नहीं खींचा होगा। क्योंकि सृष्टि के अणु-अणु के आकर्षणों और आमन्त्रणों को सदा मेरी आत्मा का उत्तर मिलता ही रहता है ।... __.. पर मगध की सीमा में पैर रखते ही, चेलना वहाँ के चप्पे-चप्पे और पत्ते-पत्ते पर छायी दिखाई पड़ती है। और उसकी उस छबि में, उसके हृदयेश्वर श्रेणिक को सदा उसके अंक में स्थित देखा है। · · और तब समस्त मागधी भूमि की एक-एक आत्मा के खिंचाव को, उसी अभिन्न युगल में से आता अनुभव किया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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