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केवल तुम रहो महावीर, मैं नहीं, मैं नहीं, मैं नहीं। मैं कहीं नहीं हैं। ..
ओह, ऐसे निरुत्तर, ऐसे अफाट् विराट अनुत्तर मौन तुम । देखते-देखते निरस्तित्व हो गये। आँख से परे चले गये। हाय, कैसे कहाँ, किस आधार पर अपने अस्तित्व को लौटाऊँ। कैसे अपने होने को महेसूस करूं। इतना निरालम्ब निरुपाय कर दिया तुमने मुझे, ओ अकिंचन श्रमण ?
मैं हूँ कि नहीं हूँ? मैं रहूँ कि न रहूँ . . . ? एक दिगन्तवाही प्रलय-गर्जन के सिवाय कहीं से कोई उत्तर न हीं मिल
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