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कहते हैं कि देवी आम्रपाली यह उत्तर सुन कर बहुत कातर हो आई थीं। स्वयम् अपने रथ पर आरूढ़ हो कर वे 'महावन उद्यान' में भरत के कुटीर-द्वार पर उसे लिवा लाने गई थीं। उनके जी में आया था, कि उसे वे 'सप्त-भूमिक प्रासाद' में राजसी वैभव के साथ रक्खेंगी। उसे 'वह घर' देंगी, जिसकी खोज में कलाकार चिर काल से भटक रहा है। ताकि अपना वह अभीप्सित 'घर' पा कर, वह अभिशप्त कामकुमार चेतना और सौन्दर्य के नित-नये स्वर्ग अपने फलकों पर खोलता चला जाये।
भरत के कुटीर-द्वार पर पहुँच कर. देवी ने उसे शून्य पाया। पंछी अपनी उड़ान पर कहीं और निकल चुका था। बहुत खोज-तलाश करने पर भी फिर देवी भरत को न पा सकीं।
योगायोग कि चैत्र के एक अपरान्ह में मेरी तीनों छोटी बहनें-ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा और चंदना, मॅजरियों से महकते और कोयल से कुहकते एक आम्रकानन में विचर रही थीं। तभी एकाएक भरत कहीं से उनके सामने आ खड़ा हुआ। पता-ठिकाना पूछने पर उसने कोई उत्तर न दिया। वहोत मनुहारें करके वे हार गईं, पर भरत को वे बहला और बुलवा न सकीं। मुस्कुरा कर वह चुप हो रहता, और अन्यत्र देखने लगता। . तब मेरी चतुर-चालाक बहनों ने उसे मुखर-मुखातिब करने की एक युक्ति सोची। उन्होंने भरत से प्रस्ताव किया कि वह चेलना का एक सच्चा, तद्रूप, नग्न चित्र अंकित करे। परीक्षा की चुनौती के साथ उन तीनों ने उस पर कटाक्ष पात किया । भरत तब बोला : .
'भगवती चेलना चाहेंगी, तो अवश्य वे मेरे फलक पर निरावरण हुए बिना रह सकेंगी। मैं कौन होता हूँ उन्हें नग्न करने वाला।'
लौटने पर चन्दना ने जब भरत का यह उत्तर मुझे सुनाया, तो एक ऐसी समपिति मेरे हृदय में उमड़ी कि मेरा पोर-पोर खुल कर निवेदित हो आया । मेरे कुमारी जीवन का वह विलक्षण संवेदन मुझे आत्मानुभूति के प्रथम पारसपरस सा लगा था। .
- - एक दिन अचानक तड़के ही भरत आया, और द्वार-पौर पर चन्दना 'को बुलवा कर चित्रपट सौंप दिया। और चुपचाप उलटे पैरों लौट गया ।
. . . 'मेरा नग्न चित्र देख कर, मेरी बहनें विस्मय से अवाक रह गईं । जब मैंने भी एकाग्र उसे देखा, तो लगा कि हाय, विदेह हुई जा रही हूँ। जन्मजात वैदेही को भरत ने आरपार देख लिया। मेरी आँखें नीची हो गईं। मेरा बोल न फूट सका। अपने सारे गुह्यांगों में एक विप्लव का-सा अनुभव हुआ। मेरे गोपन अंगों और अवयवों के सूक्ष्म से मूक्ष्म उभारों, भंगों और लयों को
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