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'एक बात पूर्वी, दीदी ?' 'पूछो।' 'वह कलंक तुम्हें छू सका?' 'कलंक तो सदा सती को ही लगता आया है, चन्दन, कुलटा को नहीं !' 'फिर भी पूछती हूँ, तुम्हें कैसा लगा था ?' 'जानते हए भी क्यों पूछ रही हो?' 'मन की तहों का पार नहीं, दीदी।'
'अपने तन को अपने मन से अलग तो तुम्हारी दीदी कभी रख न सकी। क्या मेरे चेहरे को तुमने कभी मलिन, पराहत देखा ?'
'उज्ज्वलतर होता देख रही हूँ, तुम्हारा चेहरा !'
'सुनो चन्दन, दूरी में नियति का कोई विषम चक्रव्यूह देख रही हूँ। मेरी चिवांकित नग्नता की लौ में कोई ज्वालामुखी सिसक रहा है !'
'दीदी, बहुत डर लग रहा है। साफ़-साफ़ कहो न, क्या बात है ?'
'सो तो मुझे भी ठीक पता नहीं, चन्दन । यह अदृष्ट का खेल है। जान लिया जाये, तो अदृष्ट कैसा? जो आये उसे झेलने को सन्नद्ध हूँ।'
'कोई संकट है, दीदी?'
'पता नहीं, पर इतना जान लो कि तुम्हारी दीदी ऊपर ही जा सकती है, नीचे नहीं आयेगी । और निश्चिन्त हो जाओ।'
चन्दना एक भ्रूभंग के साथ उल्कापात की तरह हँस पड़ी। हम दोनों बहनें आनन्द मगन हो कर एक-दूसरी से लिपट गयीं।
बहते समय के पानी पर बात- इतनी दूर जा कर खो गई, कि उसका कहीं कोई जिक्र ही नहीं रहा ।।
अचानक एक दिन हमारे अन्तःपुर में खबर हुई कि हंसद्वीप के कोई रत्न-श्रेष्ठि कई जौहरियों को साथ ले कर वैशाली में आये हुए हैं। उन्होंने कुछ अलभ्य रत्न वैशालीपति महाराज चेटक को भेंट किये हैं। सादर उन्हें हमारी अतिथिशाला में ही ठहराया गया है। और वैशाली के रत्न-हाटक में उनकी विलक्षण रत्न-सम्पदा से एक विचित्र रोशनी पैदा हो गई है।
कई मीना-खचित रत्न-मंजूषाओं के साथ, एक दिन हमारे अन्तःपुर में भी उनका आगमन हुआ। श्रेष्ठि के रूप-स्वरूप को देख कर ही मैं इतनी अभिभत हो गई, कि उनके रत्न-अलंकारों पर मेरा ध्यान ही न जा सका।
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