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भी उसने अपनी रेखाओं में ताद्रष्ट उजाल दिया था । तिल, लांछन और अन्य सूक्ष्म रेखा-चिन्ह तक उसने
'चेलना के गुप्तांगों के ज्वलन्त आँक दिये थे ।
इतने बड़े सत्य और सौन्दर्य पर पर्दा कैसे डाला जा सकता है । बात वैशाली के महलों और अन्तः पुरों में व्यापती हुई, ज्वाला की तरह जन-जन तक पहुँच गई। मुझे और भरत को जोड़ कर अनेक कलंक-कथाएँ तक चल पड़ीं । सरल चित्त महाराज- पिता चेटक और माँ सुभद्रा बड़े असमंजस में पड़ गये । लज्जा में उनके माथे झुक गये । यह कैसे सम्भव हो सकता है, कि किसी कुमारी के गोपन देह - प्रदेश को देखे बिना, उसे कोई इतना तादृष्ट आँक सके ? सवाल बहुत तीखा और जायज़ था । पर इसका उत्तर सिवाय मेरे या कलाकार के, जगत में और किसी के पास नहीं था। पर मैं चुप ही रही। इस रोशनी की कैफ़ियत देना, मुझे अपनी आत्मा का अपमान लगा ।
वैशाली के न्यायालय में भरत पर नालिश हुई, कि उस आवारा ने वैशाली की सती राजपुत्री चेलना का नग्न चित्र आँक कर, सारे वैशाली गण को अपमानित और कलंकित किया है । पर उस चित्र को बनवाने वाली मेरी छोटी बहनों के कौतुक -कौतूहल का अन्त नहीं था । किन्तु मेरे इशारे पर वे भी चुप रहीं, और चुहुल - मज़ाक़ से ही सबको बहलाती रहीं
परमोच्च न्यायालय के ऐलान पर वैशाली के चौक-चौराहों, राहों और उपवनों तक में घंटे - दमामे बजा कर, भरत की सार्वजनिक तलबी घोषित हुई। पर अभियुक्त का दिशान्तों तक पता न चल सका । वैशाली के सैन्य और गुप्तचर पातालों में बल्लियाँ डाल कर भी, उसे खोज लाने में समर्थ न हो सके। उस दिन सबेरे जो हमारे अन्त: पुर की ड्योढ़ी में चन्दना को वह चित्र सौंप कर गया, उसके बाद उसने मुँह नहीं दिखाया । यह जानने की जिज्ञासा भी उसे नहीं रही, कि उसके चित्र का क्या प्रभाव पड़ा होगा ।
- वैशाली के परमोच्च न्यायालय के कठघरे उस अभियुक्त को पाने में समर्थ न हो सके ।
समय के साथ बात बिसारे पड़ गई । पुरानी हो गई । रहस्य, शाश्वत रहस्य हो कर ही रह गया । एक दिन वह प्रसंग फिर छिड़ने पर चन्द मुझे से पूछा :
" दीदी क्या रहस्य था उस बात में ? '
'वही, जो तुम समझ रही हो, चन्दन । यानी उसे खोलना पवित्र नहीं होगा । वह अनन्त ही रहे ।'
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'ठीक मेरे मन की बात तुमने कैसे कह दी, दीदी !'
'तुम से अधिक कौन मुझे यहाँ समझता है?'
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