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• • “एक अनिर्वार जिज्ञासा मेरे हृदय को कुरेदने लगी। यह पुरुष महज व्यापारी नहीं। यह केवल समद्रों की सतह का सार्थवाह नहीं, समुद्र के तलातल का प्रवासी कोई रत्न-अन्वेषी है । एक दिशावेधी धनुष मेरे भीतर टंकार उठा । मैं वहाँ ठहर न सकी। अपने कक्ष में जा द्वार बन्द कर लिया, और आँखें मूंद कर एक स्वप्नमाया में खो रही
इस बीच प्रायः सबेरे, पार्श्ववर्ती अतिथि-शाला की छत पर बने चैत्यालय में से पूजा की बहुत ही ललित-कण्ठी गान-ध्वनि सुनाई पड़ती थी। और मुझे एक अजीब बेचनी-सी हो आती।
एक सबेरे आख़िर मैं अपने को रोक न सकी, और पूजार्घ्य चढ़ाने के बहाने, अतिथिशाला के छतवर्ती जिनालय में चली गई। · · मुझे यों अचानक वहाँ हाथ जोड़े, वन्दन-मुद्रा में विनत देख कर रत्न-श्रेष्ठि के पूजागान की धारा भंग-सी हुई। हमारी निगाहें मिलीं, और ऐसा लगा कि जैसे उन्होंने मुझे पहचान लिया हो। मानो कि टोका हो, कि अरे, तुम आ गईं ? · . 'तुम्हारी ही तो खोज में हूँ।
मैंने आँखें उस ओर से फेर लीं, और मैं दीवार ताकने लगी। आश्चर्य! . . . दीवार के ठीक बीचोबीच एक विशाल चित्र-फलक टॅगा था। उसमें एक देवोपम सुन्दर, भव्य प्रतापी राजपुरुष का चित्र अंकित था। · दृष्टि पड़ते ही मेरी चेतना के अतल में जैसे विस्फोट-सा हुआ। कई जन्मों की यादों से मानो' मैं व्याकुल हो आई। नख से शिख तक मैं पसीने में नहा आई। .. हाय, यह कैसी अपूर्व ममता मेरे रक्त में उमड़ी आ रही है। इससे पूर्व ऐसी मोहाकुलता मैंने किसी पुरुष के प्रति अनुभव न की थी। चित्रांकित पुरुष की आँखें, मुझे एक टक घूरती हुईं, मेरे प्राण को खींचे ले रही थीं। और मैं आँख मूंद कर भी जैसे उस ओर से दृष्टि हटाने में समर्थ नहीं हो पा रही थी।
• मुझे मूर्छा के हिलोरे-से आने लगे। लगा कि अभी गिर पडूंगी। तभी रत्न-श्रेष्ठि का मधुर कण्ठ-स्वर सुनायी पड़ा :
'देवी, आपकी जिज्ञासा को समझ रहा हूँ !
मैंने चौंक कर आँखें खोलीं। अंष्ठि एकदम ही समीप खड़े थे। एक असह्य पृच्छा का कटाक्ष मेरी आँखों में कौंध गया। और मेरी पलकें लज्जा से ढुलक पड़ी। ___ये मगध-सम्राट बिम्बिसार श्रेणिक हैं, देवी । इनकी तलवार. के तेज से आर्यावर्त की पृथ्वी और समुद्र के सीमान्त काँप रहे हैं।'
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