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कामधेनु पृथ्वी का चरम दोहन
इस उदास सन्ध्या में अकेली विपुलाचल के पादप्रान्त में आ बैठी हूँ । भीतर मानो जनम जनम की यादों के जंगल हहरा उठे हैं। याद आ रहा है, अपनी विलक्षण नियति का वह षड्यंत्र, जिसने मुझे मगध की सम्राज्ञी बनाया । आज बरसों बाद पहली बार अपने अतीत की उस मर्म - कथा को अपने अणु-अणु में फिर से जी रही हूँ ।
याद आ रहा है, अयोध्या का वह अनोखा चित्रकार भरत । उस अकिंचन कलाधर ने अयोध्या की राजकुमारी वासवी को प्यार करने का अपराध किया था । एक बार पावस की एक बादल छायी बेला में वन-क्रीड़ा करती वासवी की एक चितवन मात्र उसने देख ली थी । उसके मनोवन में एक कुरंगी और मयूरी नाच उठी थी । उसके बाद उसके प्रेम की तन्निष्ठ आग और एकाग्रता ने उसकी कल्पना को इतना पारदर्शी, अचूक और ज्वलन्त कर दिया, कि उसने अपने सैकड़ों चित्रपटों में, वासवी की पल-पल की हर भंगिमा के साथ उसे सर्वांग साकार कर दिया । स्वाभाविक था कि वासवी के आत्म-राज्य को उसने अपनी विदग्ध कचौट से आरपार भेद दिया था । उसके मन की हर तरंग को उसने अपनी तूलिका से गिरफ़्तार कर लिया था ।
भरत के वे अग्निम चित्र वासवी तक पहुँचे बिना न रह सके। उसे लगा कि यह कौन तेज - पुरुष है, जिसने उसकी रग-रग और रोंये-रोंये को अपने फलकों पर अनावरण कर दिया है ? वह उसे देखने और पाने को बावली हो गई । वह प्राय: मूच्छित और विक्षिप्त-सी रहने लगी । अयोध्यापति को इस रहस्य का पता लगाने में देर न लगी । बात की बात में भरत को. मुश्कियों से बँधवा कर, अयोध्या की सीमा से निर्वासित करवा दिया गया ।
इस निर्वासन और विरह-व्यथा से, भरत की कल्पना और उसका विज़न अधिकाधिक सतेज और वेधक होता चला गया। आर्यावर्त के जनपदों में भटकता हुआ वह अपने नित-नव्य चित्रों की मोहिनी के बल जाने कितनी ही असूर्यं पश्याओं का मनमोहन हो गया ।
अपने इसी अलक्ष्य भ्रमण के दौरान वह एक बार महानगरी वैशाली आया । उसने एक दिन वैशालीपति की परमा सुन्दरी बेटियों-ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा,
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