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चेलना की शैया, अपने स्वामी की प्रतीक्षा में है ।'
'अंगारों पर कौन लेट सकता है?' 'मेरी आग से बच कर कहाँ जाओगे ?' 'आसमुद्र पृथ्वी का साम्राज्य मेरी प्रतीक्षा में है ।'
'चेलना की शैया से बाहर वह कहीं नहीं है ! '
'तुम्हारे इस मान को तोड़े बिना, श्रेणिक को चैन नहीं ।'
मान तो अपना कोई नहीं रक्खा, सिवाय वर्द्धमान के । और वह तुम्हारे प्रहार के इन्तज़ार में है ।'
'उसे टूट जाना होगा ।'
'हर टूटन पर जो अधिक अखण्ड होता गया, उसे तोड़ कर क्या पाओगे ?' 'तुम्हें । इतिहास का एक अश्रुतपूर्व साम्राज्य ।'
'तो तुम अब तक मुझे पा नहीं सके ? 'सुनो, चेलना और वह साम्राज्य तुम्हें अन्तिम रूप से दे देने को ही तो महावीर आया है ! '
'यह मेरे वीर्य का अपमान है ।'
'मेरे होते वह कौन कर सकता है ! पर पर मुझे पहचानने को तुम्हें
अजितवीर्य हो जाना पड़ेगा ।'
'इसका निर्णायक कौन ?' 'मेरी शैया ! '
एक गहरा, अटूट सन्नाटा ।
'बैठोगे नहीं ? आओ मेरे पास ।'
'मेरी धरती ही तुमने छीन ली, चेला । बैठने को अब क्या बचा है ।' 'इस ओर देखो । पहचानो अपनी धरती को । अब भी ज़मीन पर ही रहोगे ? ' मैं धप से फ़र्श पर बैठ गई । और वे मेरी गोद में ढलक आये ।
• लेकिन फिर उस रात जो मेरी गोद से उठकर वे गये, तो जैसे खो ही गये । महल तो क्या, मगध के सीमान्तों तक भी उनका पता न चल सका। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था । पर इस बार उनका यह गुम हो जाना, बाहरी से अधिक भीतरी लगा । यों उनके भीतर के भूगोल को भी मैंने हदों तक जाना है। लेकिन ऐसा प्रतीत हुआ, कि इस बार वे उन हदों
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