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'धरती किसी की नहीं । न कभी हुई है । पूरा इतिहास भ्रम में है।' 'श्रेणिक बिम्बिसार किसी भ्रम में नहीं। 'हो भी, तो इसके बाद नहीं रह सकोगे?' 'चेलना · · !' 'स्वामी' . .!' 'मैं या वह ?' 'मेरे मन में तुम्हारे और उनके बीच की दीवार टूट गई !'
'इसी लिए तो गंगा-शोण के संगम-जल पर मागधों और वैशालकों की तलवारें टकरा रही हैं।'
'पर क्या वे गंगा की अखण्ड धारा को काट सकी ?'
'मैं अपनी भुजाओं से गंगा की धारा मोड़ दूंगा। उसके ग़लत प्रवाह को तोड़ दूंगा।'
'वह तलवार से सम्भव नहीं। वह महावीर से सम्भव है।' 'मतलब ?'
'यही कि तुम्हें कष्ट नहीं करना होगा। बाहुबल और तलवारें आपोआप गिर जायेंगी । महावीर अपनी मुस्कान मात्र से वह कर देगा।'
'उसकी सामर्थ्य ? उसकी हैसियत ?'
'यही कि उसके तन पर तुम्हारी धरती का एक तार भी नहीं। उसकी ताक़त तलवार और प्रहार की कायल नहीं । सम्राटों की धरती उसकी एक पदचाप को तरसती है। पर तुम्हारी ज़मीनों पर उसका पैर टिकता नहीं। बहते हुए आकाश की अपनी कोई सत्ता नहीं, इयत्ता नहीं । फिर भी सारी सत्ताएँ उसके भीतर कायम है । उसके साम्राज्य से बाहर कुछ भी नहीं । तुम भी नहीं, मैं भी नहीं, नाथ !'
'तुम्हें निर्गय कर लेना होगा, चेला । मगध या वैशाली ?'
'ऋजुबालिका नदी के तट पर वह सीमा अन्तिम रूप से टूट गई । मेरी रक्तधारा में वैशाली और मगध एक हो गये ।'
'काश, मैं तुम्हें इतना प्यार न करता होता, चेला ! मेरे हृदय में आखिरी चाकू उतार दिया तुमने । फिर भी · ।'
'फिर भी क्या ?' 'तुम अधिक प्यारी लग रही हो !'
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