________________
२३६
मानो कि तुमने कहा हो : 'देख श्रेणिक, पृथ्वी का आगामी साम्राज्य बुना जा रहा है !
मैंने फिर कातर कंठ से अनुनय की :
'देवानुप्रिय, हमारी सेवा स्वीकारें । मगध के महालय को अपनी पदरज से पावन करें ।'
लेकिन तुम चुप रह कर फिर प्रतिमा - योग में निश्चल हो गये ।
मैं तो और भी गल कर ही लौट सकी । व्यथा का पार नहीं था, फिर भी तुम्हारे प्रति कोई अनुयोग अभियोग मन में नहीं जागा । तुम्हें केवल समझते और सहते चले जाना है । और कोई गति मेरी नहीं है ।
पर अब रूठने और बन्द होने की इनकी बारी थी । इनके कक्ष के नीलमी कपाट सारी दुनिया के लिए बन्द हो गये । चेलना के हलके से दूरागत नूपुर-रव से भी विदग्ध हो जाने वाले प्रीतम के बन्द कपाट पर चलना के माथे की पछाड़ और चीत्कार भी व्यर्थ हो गई ।
तब एक ही मार्ग मेरे लिए शेष रह गया। तुम्हारी प्रतीक्षा की राह में बिछती ही चली जाऊँ । देखूं, कैसे नहीं आओगे मेरे पास । प्रतिदिन बड़ी भोर से ही राजद्वार पर श्रीफल - कलश लेकर तुम्हारा द्वारापेक्षण करने लगी । हर दिन गोचरी की बेला सूनी ही टल जाती । मगध की असूर्यपश्या अपरूप सुन्दरी राजराजेश्वरी को, यों घंटों द्वार पर अडिग खड़े रह धूप में तपते देख कर, सारी राजगृही और उसका वैभव सनाका खा गया । मगध में अपवाद फैल गया कि महारानी चेलना देवी, निगंठ नाथपुत्त की तापसी हो गई है ।
समुद्र-कम्पी मगधेश्वर का सिंहासन और देवोपम ऐश्वर्य तुम्हारी प्रतीक्षा में पथरा गया । मगध का साम्राजी सिंहतोरण तुम्हारी पदरज का भिखारी हो कर रह गया । पर भिक्षुक हमारी राह नहीं आया। हमारा महाद्वार ठोकर खाया-सा मानो धूलिसात हो रहा ।
पंचशैल के अरण्यों में तुम तमाम जड़-जंगम के पास स्वयम् ही गये । कंकड़-पत्थर, कीट-पतंग, कास-कुस, जाला - मकड़ी, मच्छर-पिस्सू तक तुम्हारे पूर्ण स्पर्श का सुख पा सके । गृध्रकूट की गुफाओं के सदियों पुराने अगम अँधेरे भी तुम्हारे आलिंगन में भास्वर उठे । राह के हर दीन-अकिंचन ग्रामीण, खेतिहर, कम्मकर, डोम, चाण्डाल तक के लिए तुम चलते-चलते रुक जाते । मुस्कुरा कर उद्बोधन का हाथ उठा देते । तंतुवायशाला के कर्मों तक से तुम एकतान हुए । मतिमन्द मंखलि गोशाल की मूढ़ वाचालता को भी तुम हर समय सहते
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org