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हमें भी देख ही रहे हो। उन में और आर्यावर्त के सर्वोपरि सत्ता-स्वामी और उसकी सम्राज्ञी में तुम्हारे लिये कोई अन्तर नहीं था। रो आई मैं। मन ही मन कितना निहोरा किया, कि मुझे चाहे मत देखो, एक बार निगाह उठाकर इन्हें जरूर देख लो। कितनी मुश्किल और मनुहार से इन्हें लायी हूँ। जिस मगधनाथ की एक नज़र पाने को आर्यावर्त के बड़े-बड़े छत्रधारी तरसते हैं, वर्तमान इतिहास का जो प्रथम चक्रवर्ती सम्राट है, राजगृही के पंचशैल जिसके आगे शीश झकाये खड़े हैं, पूर्वी और पश्चिमी समुद्र की मर्यादाएँ जिसके प्रताप से डगमगा रही हैं, वह श्रेणिक चेलना के आँचल की गाँठ-बंधा तुम्हारे चरणों में उपविष्ट है।
· · पर तुम्हारी सम्यक् और सम-दृष्टि में एक तृण, कण या कीट से अधिक और अलग क्या कोई हस्ती नहीं ? इन्हें आदत नहीं यह देखने की, कि जीवित लोक की कोई सत्ता इनके समक्ष हो कर इन्हें झुके नहीं । इन्हें कैसा लगेगा, कैसे इन्हें सम्हालूंगी ? होड़ लग जायेगी, और चुनौती होगी मेरे सामने, कि तुम दोनों में से किसी एक को मुझे चुन लेना होगा। नहीं तो शायद चेलना को अपने प्राणों का फैसला कर लेना होगा। विदेहों की वैशाली को जो अपने पैर के अँगूठे से कुचल देने को उद्यत और उद्धत हो उठा है, उस वैशाली की एक बेटी को अपनी छाती की फूलमाला की तरह तोड़ कर, मसल कर फेंक देना, उसकी एक त्रुटकी का खेल ही तो हो सकता है।
मेरी सारी मौन विनतियाँ और आँसू तुम्हें रंच भी विचलित न कर सके, ओ मेरी आत्मा के एकमेव स्वामी ! हार कर गर्दन अपने खड़े जानू पर ढाल दी, और एक निगाह इनकी ओर देखा। हैरत भरी आँखों से एक टक, ये तुम्हारी आजानबाहु जंघाओं के विराट स्तंभों को यों देख रहे थे, जैसे मानुषोत्तर पर्वत के महागोपुरम् को सामने पा कर किसी मानव चक्रवर्ती का चक्र-रत्न चूर-चूर हो गया हो।
.. कितनी मर्माहत हो कर उलटे पैरों लौट पड़ी थी। हमारे पीछे आ रहा हमारा रथ कुछ दूर पर हमारी प्रतीक्षा में था। इनके साथ चलते हुए रथ तक पहुँचने में भी कितनी कठिनाई हुई थी। मस्तिष्क के केन्द्र से जैसे स्नायु विच्छिन्न हो गये थे। मेरुदण्ड मानो भग्न हो गया था। शिराओं में रक्त का प्रवाह जैसे थम गया था। घुटने टूट गये थे । - ऐसा लगा, जैसे मर्मर की एक निर्जीव पुतली ही रथ तक पहुँची है। हीरे-पन्नों के स्तूपसा खड़ा रथ, रंग-बिरंगे पत्थरों के ढेर से अधिक न लगा। ___ भयभीत और काठ-मारी-सी थी, कि पता नहीं अब ये क्या कहेंगे? पर ये भी मूर्तिवत् ख़ामोश और स्तंभित थे। लेकिन इतना स्पष्ट अपने हृदय में अनुभव कर सकी कि इनके भीतर भूचाल थमा हुआ है । अपनी हार को न
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