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सृष्टि का एकमेव अभियुक्त मैं
चम्पा में वर्षावास व्यतीत कर, जृम्भक ग्राम, मेढक ग्राम से विहार करता हुआ, षड्गमानि ग्राम आया हूँ । यहाँ के उपान्त भाग में, सुरम्य शाल्मलि-वन के तलदेश में एक शिलातल पर आ बैठा हूँ । चारों ओर दूरदूर तक फैले चरागाहों में ग्वाले गायें चरा रहे हैं। दूरान्त में एक टीले पर चरती एकाकी गाय के चतुष्पद में दीखा : आकाश के तट पर झूलता किसी महल का अलिन्द । उसे एकटक निहारता जाने कब अन्तरगामी देश-काल के जाने कितने ही पटलों में यात्रा करने लगा । ध्यान गभीर से गभीरतर होता गया । ऐसा कि जहाँ विस्तार और गहराव एकाकार हो गये हैं । अतीत जीवन-जन्मों की जाने कितनी ही सरणियाँ पार होती चली गयीं ।
- हठात् देखा, कि मैं हूं त्रिपृष्ठ वासुदेव, तीन खण्ड पृथ्वी का अधीश्वर, परम प्रतापी अर्धचक्री । अपने विपुल वैभव मंडित कक्ष में, एक वसन्त रात्रि की शयन - बेला में, कुन्दन्धारिजात फूलों की सुख-शया में अध-लेटा हूँ । फर्श पर दूर द्वीपान्तर से आयी एक किन्नर - मण्डली, अपने अपार्थिव संगीत से चक्री का मनोरंजन कर रही है । उसके स्वरालाप से सम्मोहित मैं स्तब्ध चित्र-लिखित सा रह गया हूँ। ऐसा संगीत कि जिसकी मीड़-मूर्च्छना में लवलीन हो कर तिर्यंच पशु-प्राणि तक भूख-प्यास भूल कर आत्म-विस्मृत हो जायें । पहर रात गये मुझ पर गहरी तन्द्रा छाने लगी है । मैंने अपने शैयापाल को आदेश दिया :
'जब मुझे नींद आ जाये, तो तू इस संगीत सभा को विसर्जित करवा देना ।'
मैं गहरी निद्रा में मग्न हो गया, फिर भी संगीत-सभा जारी रही । पिछली रात अचानक मैं जागा, तो पाया कि संगीत की धारा वैसी ही अविराम बह रही है। मेरी भृकुटियाँ टेढ़ी हो गयीं। मैंने शैयापाल को तलब किया :
'मैं सो गया, फिर भी संगीत चल ही रहा है । मेरी आज्ञा का पालन क्यों नहीं हुआ ?"
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