________________
२२३
'यही कि एक शरीर से उसे ममत्व नहीं । क्यों कि वह अनन्त शरीरों में अपने को रच और मिटा सकता है । वह एक साथ असंख्य पिण्डों में क्रीड़ा करेगा. . . !'
___ सुना नहीं ऐसा कभी। किसी केवली ने ऐसा कभी नहीं कहा। कोई त्रिकालज्ञानी, त्रिलोक-पति भी ऐसा दावा नहीं कर सका ।'
'काल और लाक तीन पर ख़त्म नहीं । अनन्त हैं वे । और महावीर की भृकुटि में वे अपने नित नये आयाम खोल रहे हैं, राजन'
'कहाँ है वह इस क्षण ?' 'जहाँ उसके सिवाय और कोई नहीं !' । 'त्रिलोक और त्रिकाल से बाहर कहीं ?'
'अपने आप में । अपने स्व-समय में, अपने स्व-देश में । जहाँ सारे देशकाल मात्र उसके आत्म-परिणमन की तरंगें हो कर रह गये हैं।'
'केवलज्ञानी महावीर हुआ हो या नहीं आज की रात, तुम ज़रूर वह हो गई हो, रानी !'
'ज्ञान से मेरा क्या लेना-देना ? मैं हूँ निरी सम्वेदना, 'द्र अनुभति। निपट नारी।'
'माँ · · ·!' 'आत् · · ·मा !'
कब कितनी दूर तक वे मेरे भीतर आये, और जाने कब कहाँ, किस पर पार में उतर गये, पता ही न चल सका । बस, एक समुद्र को अपने भीतर घहराता अनुभव करती रही। और सहसा ही वह स्तब्ध हो गया । अब मेरी शैया फूल-सी हलकी होकर, अन्तरिक्ष में तैर रही है। इतनी सार्थक तो वह पहले कभी न हुई। उस रात भी नहीं, जब तुम गर्भ में आये थे, मान !
सूना है, तीर्थकर की माँ दुबारा गर्भ धारण नहीं करती। पर कितना ज्वलन्त है यह अहसास, कि आज मैंने दुबारा गर्भ धारण किया है । तीनों लोक और तीनों काल मेरी कोख की सीपी में तरल मुक्ताफल की तरह तैर रहे हैं। एक मोती के भीतर, असंख्य मोती हैं। और हर मोती के भीतर अनन्त का समुद्र हिलोरे मार रहा है। कितनी विचित्र है यह अनुभूति ! एक नये ही लोक का जन्म होने को है। उसकी प्रसव-पीड़ा को सहने के
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org