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लिए यह एक शरीर कम पड़ रहा है। मेरे हर रोंये में से एक नये शरीर का अंकुर फुट रहा है। कोई ऐसा शरीर, जिसमें शुद्ध चैतन्य की तरंग ही मानो आकृत और पिण्डीभूत हो रही हो ।
- हठात् यह कैसा बिजली का-सा खटका मेरे मस्तिष्क में हुआ । किसी बहुत ऊपरी प्लैन से, बहुत नीचे के प्लैन पर आ पड़ी हूँ। मेरी अन्तरिक्ष में तैर रही फूल-शैया, फिर इस कमरे की ठोस फर्श, छत और दीवारों के बीच आ पड़ी है। क्षण भर पहले भारहीन हो गया मेरा शरीर फिर भारी और सीमित हो गया है। . . .
मान, उस दिन तुम मुझे आखिरी वियोग दे कर, बड़ी निर्ममता से मेरा आँचल झटक गये थे। क्या उससे भी तुम्हारे पुरुष का मोक्षार्थी अहंकार तृप्त न हो सका ? जो आज फिर बरसों के बाद, मेरे सोये हुए ज़ख्म को छेड़ कर तुमने उसे नये सिरे से रौंदा और मथ डाला है। तुम्हारे लिए यह निरा खेल हो सकता है, पर मेरे लिए यह हर पल मृत्यु से लड़ कर जीने का संघर्ष है।
• अरे, कौन थी वह, जो क्षण भर पहले मुझ में विद्युल्लेखा-सी खेल रही थी, गहन मेघमाला-सी बोल रही थी। अब रह गई हूँ फिर से एक निपट अकिंचन मर्त्य मानवी नारी, एक आदि काल की विरहिणी रमणी और माँ । एक चिर प्यासी, खण्ड-खण्ड दरकती धरती। और उसकी हर दरार में अबूझ अन्धकार के सिवाय और कुछ भी नहीं है। इस रात जैसे पहली बार, तुम से अन्तिम रूप से बिछुड़ गई हूँ, मान । इन सारे बरसों में तुम्हारे मरणान्तक उपसर्गों के उदन्त आये दिन सुनती रही हूँ। चाहे जितनी ही वेदना और चिन्ता उनसे हुई हो, पर कहीं भीतर के भीतर में यह प्रतीति अटल रही कि, नहीं, मेरे मान का घात कर सके, ऐसी ताक़त कभी नहीं जन्मी, नहीं जन्मेगी।
पर, आज ? इस मध्य रात्रि के शून्य पल में, वह धरती ही मेरे पैरों से किसी ने छीन ली है। तुम्हारे सिवाय ऐसी सामर्थ्य किसकी हो सकती है, जो तुम्हारी माँ को बेधरती कर दे। - बारह बरस हो गये, तुम्हारा कोई सपना या परछाँहीं तक देख सकूँ, यह तुमने सम्भव न होने दिया। इतने असम्पृक्त, इतने निरासक्त हो कर गये तुम, कि प्रकृति का कोई पुद्गल-परमाणु तुम्हारे तन या मन की छाप ग्रहण कर सके, या तुम्हारी चेतना को बिन चाहे रंच भी संक्रमित कर सके, यह शक्य न हो सका । ऐसी वीतरागता, जो सारे लोकाकाश में छा कर रह गई। वह इस अन्तरिक्ष की एक और ही तह, सतह और स्वभाव बन गई। मानो कि सब-कुछ को इस क़दर तुम अपने भीतर अन्तर्लीन कर गये, कि
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