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कांटों से फटे तुम्हारे सुकुमार चरणों को देखने का साहस भी मन जुटा न सकी । सो अपने एकान्त की इस शैया पर अपनी छाती बिछा कर, अनुपल तुम्हारे उन विश्व- लालित चरणों की चायें झेलने का सुख अनुभव करती, अपने स्तनों की उमड़न में विसर्जित होती रही ।
पर मेरा यह इतना सा सुख भी क्या तुम्हें सहन न हो सका ? जो इस आधी रात भर नींद में, महाकाल का शूल बन कर तुम मेरी इस चिर प्रतीक्षाकुल छाती को हूल गये । ऐसा लग रहा है, कि इस चरम विदारण के साथ, तुम मानुषिक भूमिका का अतिक्रमण कर, मानुषोत्तर शिखर पर आरोहण कर रहे हो । हमारी इस ऊष्माविल धरती के कण-कण और जीव-जीव की पीर तुम्हारे हृदय को सदा मर्माहत कर देती रही है । प्राणि मात्र की आत्मा में आत्मा ऊँड़ेल कर ही तुम अब तक जिये हो । पर इस क्षण ऐसा लग रहा है, कि अपने आत्मोत्थान की यात्रा में, तुम प्राण-जगत की सीमा को भी पार कर गये हो । तन और मन के सारे नाते झंझोड़ कर तोड़ गये हो ।
तो क्या, मान, तुम अब मनुष्य नहीं रहे, भगवान हो गये ? हो नहीं गये, तो हो जाने की अनी पर खड़े हो । भगवानों की तो कमी नहीं इतिहास में । हर पत्थर को मनुष्य की भयभीत आस्था ने आदिकाल से भगवान बना कर पूजा है । उस पत्थर की निर्ममता सदा अनुत्तर रही, फिर भी मनुष्य उसी से चिपट कर ताण पाने के भ्रम में सदियों से जी रहा है ।
उस दूरवासी, सर्व सत्ताधारी पाषाण - भगवान का मैं क्या करूंगी ? सिद्धालय के सिद्धात्मा से मेरा क्या प्रयोजन ? वे अपने त्रिकालाबाधित ज्ञान में हमारे संसार की चिर कष्ट-लीला के निरे अक्रिय साक्षी हो कर ही, अपने आनन्द में मगन रहते हैं । उनका वह आत्मलीन चिद्विलास, मुझे हमारे दुःखाक्रान्त हृदयों के साथ अय्याशी लगता है । हम पृथ्वी के वासी, सिद्धालयों में आत्म-रति-मग्न भगवानों के स्वार्थ से अब ऊब गये हैं !
मुझे भगवान नहीं, मनुष्य चाहिये, मान । नितान्त रक्त-मांस में प्रकट हम जैसा ही, हमारा हमराही मनुष्य, जिसके भीतर भगवत्ता स्वयम् उतर आने को विवश हो जाये । और वह पार्थिव की आँसू-रक्त-भीनी माटी में अपने अनन्त और अमृत को उँडेल कर पहली बार धन्यता अनुभव करे । मेरे मान, सारे जगत के मान, क्या प्रतीक्षा करूं, कि किसी दिन तुम्हारे उस भव्य मानव रूप में, भगवान आर्यावर्त की धरती पर चलेंगे ? हमारे घर-घर, आँगन-आँगन, द्वार-द्वार, घाट-बाट, तुम्हारी भगवत्ता से भास्वर हो उठेंगे ?
ऐसा भगवान, जो हर माँ का आँचल हो जाये, हर प्रिया का प्रीतम हो जाये, हर कष्टी की साँसों में बस जाये, जो हमारी इस धरती की धूल में से ही एक नया आकार ले उठे ।
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