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' पर कैसे ? इस क्षण तो तुम मेरी मानुषी योनि का भेदन कर, मानुषोत्तर के शून्य - राज्य में उतर गये हो ।
क्या विश्वात्मा होने के लिए, एक बार विश्वोत्तीर्ण हो ही जाना पड़ता है ? पर मेरी योनि को धोखा दे जाओ, यह इस बार सम्भव न होने दूंगी । उसी के द्वार से पुनरागमन किये बिना, तुम्हारी भगवत्ता को यहाँ कौन पहचानेगा ?
मुक्ति- रमणी इस बार, सिद्धालय की चन्द्रिम शैया त्याग कर, तुम्हारे साथ रमण करने को इस पृथ्वी पर ही उतर आई है । वह यहाँ, मेरी इस शैया में, तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है ।
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