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गव्हर है, और उसके चहँओर गव्हर पर गव्हर खलते चले जा रहे हैं।
और फिर आयी है वह गुफ़ा, जिसमें जा कर आज तक कोई नहीं लौटा है । ऐसी होड़ लगी है, कि या तो वह गुफ़ा रहे, या फिर मैं रहूँगा।' · सुनायी पड़ती है उसके छोरान्त में से एक कातर, कठोर, बहुत महीन, मृदु आवाज :
'नहीं. • तुम्हें कभी नहीं पुकारूँगी, मृत्यु के जबड़े में पड़ जाऊँ, तब भी नहीं। तुम्हारी खोज में नहीं, अपनी ही खोज में भटक रही हूँ। तुम मेरे होते ही कौन हो. • • ?'
और उस आवाज़ के उद्गम पर पहुँचने की अनिवार्यता बढ़ती ही गयी है। अधिक-अधिक अपना आपा हारता चला गया हूँ। पाया है कि अपना 'मान' मैं नहीं, कोई और ही है। वर्द्धमान का कोई एक मान कैसे हो सकता है ? · ..
जीवन में ऐसी क्षुधा तो कभी नहीं लगी। ऐसी कि शस्य-श्यामला धरती के समूचे रस का एकबारगी ही प्राशन किये बिना, मानो वह शमित न हो सकेगी। कहाँ है वह अन्तिम स्तन, जिसमें कालातीत रूप से दूध स्तन में, और स्तन दूध में परिणत होता रहता है। उस तक पहुँचे बिना प्राण को विराम नहीं है। __.. मेरे नाथ, मेरे भगवान, तुम कहाँ हो? • • “तुम कहाँ हो ?'
अविज्ञात दूरी की वह पुकार अपने ही अन्तरतम में से सुनायी पड़ रही है। अंधेरे की अन्तहीन कुहा यों तिरोहित हो गयी, जैसे एक गहरा रेशमी जामनी आँचल सहसा ही किसी ने खसका दिया हो। उज्जव दूध का पारावार, एक अति गौर वक्षदेश के तटों में थमा हुआ है। · · · माँ · · ·आत्मा !
· · 'भिक्षुक एक महालय के तलघर की अँधेरी कोठरी के द्वार पर आ कर अटक गया।
'. “ओह, वही तो स्वरूप सामने प्रस्तुत है, जो उस दिन संगम के पुलिन पर, मेरे भीतर अभिग्रहीत हुआ था। पर, · · ‘आँसू नहीं हैं इसकी आँखों में। नहीं, यहां नहीं अटक सकंगा। · · ·और आगे जाना होगा। कहीं और · · · ! अरे कहाँ है वह करुणमुखी अश्रुलता। कहाँ है वह अश्रुमुखी राजबाला?'
तपाक से भिक्षुक लौट गया। · · आगे बढ़ गया। पीछे सुनायी पड़ा :
'नाथ, मुझे नहीं पहचाना? देख कर भी अनदेखी कर गये ? मुझी से भूल हो गयी। • 'तुम्हारी चन्दन तुम्हें पुकार रही है. . . !'
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