________________
भगवान नहीं, मनुष्य चाहिये
'माँ' · · !' 'आत् . - ‘मा!'
आह, यह कैसा शूल मेरी छाती के आरपार हो गया, हठात् इस आधी रात में । देश और काल को भेद कर किसने मुझे पुकारा है, मध्य-रात्रि के इस शून्यांशी मुहूर्त में :
'माँ' · · !' 'आत्. - ‘मा!'
समय की धारा थम गई है। केवल त्रास की एक चीख अन्तहीन हो गई है। लोक के सारे अस्तित्व इस पुकार में खो कर तदाकार हो गये हैं ।
__ यह तो तुम्हारी आवाज़ है, वर्द्धमान ! मेरे मान, मेरे कलेजे के टुकड़े। इसे पहचानने में कैसे भूल हो सकती है। सब कुछ को भूल कर, केवल तुम्हें ही तो याद रख सकी हूँ, केवल तुम्हें । बेटा, यह क्या हो गया है तुम्हें ? तुम्हारे वज्र को भेद कर कोई तुम्हें पीड़ित कर सके, ऐसी सत्ता तो, सत्ता में तुमने किसी की रहने नहीं दी। सारे प्रहार, अत्याचार, संत्रास, वध तुम्हारी स्वीकृति के भिखारी और शरणार्थी हो कर रहे गये। फिर तुम्हें, तुम्हें, तुम्हें कोई ऐसा प्रहार दे, कि तुम चीख़ उठो, पुकार उठो, कैसे विश्वास करूं?
पर आवाज़ स्पष्ट ही तुम्हारी है, मान, और मेरा सुप्त गर्भ एकाएक फटा है, भर नींद में, इस निस्तब्ध रात्रि के सन्नाटे में । इसे झुठलाना मेरे वश का नहीं। इसे व्यन्तर-माया कह कर टाल नहीं सकूँगी। क्यों कि कोई माया, कोई छल तुम्हारे और मेरे बीच नहीं खेल सकता। अपने साथ मुझे इतनी तदाकार करके छोड़ गये हो कि, कि तुम्हारे उस सत्य में मिथ्या की ऐसी कोई दरार पैदा हो सके, यह सम्भव ही नहीं है। तुम्हें लेकर जो विछोह की व्यथा भीतर आज भी सुबक रही है, वह भी तुम्हारे प्यार और करुणा के अतिरिक्त और कुछ कभी लग नहीं सकी। ऐसी सघन एकात्मता को जगत का कोई भी तीर कैसे चीर सकता है ?
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org